शनिवार, 27 जनवरी 2018

        ।।श्री महावीर चालीसा 2।।

                    ।। दोहा।।
सिद्ध और अरिहंत का, है सुखकारी नाम।
आचार्य उपाध्याय साधु के, करते चरण प्रणाम।।
वर्धमान, सन्मति तथा वीर और अतिवीर।
महावीर की वंदना, से बदले तकदीर।।

                      ।। चौपाई।।

जय जय वर्धमान जिन स्वामी।
शान्ति मनोहर छवि है नामी।।
तीर्थंकर प्रकृति के धारी।
सर्व जहां में मंगलकारी।।

पुरुषोत्तम विमान से आये।
माँ को सोलह स्वप्न दिखाये।।
राजा सिद्धारथ कहलाय।
कुण्डलपुर के भूप कहाय।।

षष्ठी शुक्ल आषाढ़ कहाय।
गर्भ में चय करके प्रभु आये।।
चैत्र शुक्ल तेरस दिन आया।
जन्म प्रभु ने जिस दिन पाया।।

नक्षत्र उत्तरा फाल्गुन जानो।
अंतिम पहर रात का मानो।।
इन्द्र तभी ऐरावत लाया।
पाण्डुक शिला पर नव्हन कराया।।

प्रभु के पद में शीश झुकाया।
पग में चिह्न शेर का पाया।।
वर्धमान तब नाम बताया।
जयकारे से गगन गुंजाया।।

पलना प्रभु का मात झुलाये।
ऋद्धिधारी मुनिवर आये।।
मन में प्रश्न मुनि के आया।
जिसका समाधान न पाया।।

देख प्रभु को हल कर लीन्हा।
सन्मति नाम प्रभु का दीन्हा।।
मित्रो संग क्रीड़ा को आये।
सभी वीरता लख हरषायें।।

देव परीक्षा लेने आया।
नाग का उसने रूप बनाया।।
भागे मित्र सभी भय खाये।
किन्तु प्रभु नही घबराये।।

पेर की ठोकर सिर में मारी।
देव तभी चीखा अतिभारी।।
उसने चरणों ढोक लगाया।
वीर नाम प्रभु का बतलाया।।

युवावस्था प्रभुजी पाये।
करके सेर नगर में आये।।
हाथी ने उत्पात मचाये।
मद उसका प्रभु पूर्ण नशाय।।

प्रभु अतिवीर नाम को पाये।
सभी प्रशंसा कर हरषायें।।
बाल ब्रह्मचारी कहलाय।
तीस वर्ष में दीक्षा पाये।।

जातिस्मरण प्रभु को आया।
तभी मन में वैराग्य समाया।।
माघ कृष्ण दशमी दिन पाया।
नक्षत्र उत्तरा फाल्गुन गाया।।

तृतीया भक्त प्रभुजी पाये।
दीक्षा धर एकाकी आये।।
स्वर्ण रंग प्रभु का शुभ गाया।
सप्त हाथ अवगाहन पाया।।

प्रभु नाथ वन में फिर आये।
साल तरुतल ध्यान लगाये।।
कामदेव रति वन में आये।
जग को जीता ऐसा गाये।।

रति ने प्रभु का दर्शन पाया।
कामदेव से वचन सुनाया।।
इन्हें जीत पाये क्या स्वामी?
नग्न खड़े जो शिवपथगामी।।

प्रभु को ध्यान से खूब डिगाया।
किन्तु उन्हें डिगा न पाया।।
कामदेव पद शीश झुकाया।
महावीर तब नाम बताया।।

दश शुक्ल वैशाख बखानी।
हुए प्रभुजी केवलज्ञानी।।
ऋजुकूला का तीर बताया।
शाल वृक्ष वनखण्ड कहाया।।

समवशरण एक योजन जानो।
योग निवृत्ति अनुपम मानो।।
कार्तिक कृष्ण अमावस पाये।
महावीर जिन मोक्ष सिधाये।।

पावागिरी तीर्थ कहलाय।
चाँदनपुर में प्रभु प्रगटाये।।
यही भावना रही हमारी।
जनता सुखमय होवे सारी।।
चरणकमल में हम सिर नाते।
विशद भाव से शीश झुकाते।।

                   ।।दोहा।।

चालीसा चालीस दिन,दिन में चालीस बार।
पढ़ने से सुख-शांति हो, मिले मोक्ष का द्वार।।

            ●मुनि श्री 108 श्री विशदसागरजी कृत●

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

            ।।सम्मेद शिखर चालीसा।।
       
अरिहंत सिद्धाचार्य को, नमन करुँ शतबार,
सर्व साधु और सरस्वती को, देवे सौख्य अपार।
सम्मेदशिखर की भूमि का, हृदय में धरुं ध्यान,
दर्शन वंदन भक्ति कर, शत्शत् करुं प्रणाम।।

।।दोहा।।
जय जय सम्मेद शिखरवर तीर्थों में यह मुख्य गिरिवर।
इसका कण-कण भी पावन है होवे सौ सौ बार नमन है।।
भूले भटके कर्म के मारे, आये शरणा जीव ये सारे।
है अंचित्य महिमा गुणगान, शुद्ध भाव शाश्वत सुख खान।।
है इतिहास अनादि अनंत, आते ही मिल जाता पंथ।
न कोई मिटाने वाला, तोड़े कर्मों के जंजाला।।
भूत भविष्यत काल हो भावी, प्रलय काल न होवे हावी।
इन्द्र देवगण रक्षा करते, भक्त की आशा पूरी करते।।
दूर-दूर से यात्री आते दर्शन कर तन-मन हर्षाते।
टोंक टोंक पर दर्शन पावें, रोम-रोम पुलकित हो जावे।।
एक-एक टोंको का दर्शन, फल करोड़ उपवास का अर्जन।
होय असाध्य असम्भव काम, किया स्मरण लिया जो नाम।।
दर्शन कर संकट को खोवे, चमत्कार उसके संग होवे।
आगम शास्त्र पुराण भी ध्यावें, महिमा इसकी इन्द्र भी गावें।।
चौबीसों तीर्थंकर धाम, यही से पावे मोक्ष निधान।
जैन अजैन सभी जन आते, पर्वत ऊपर दर्शन को पाते।।
भाव सहित वंदन जो करते, नर तिर्यंच योनि न धरते।।
नयन बंद कर ध्यान लगाओं, श्री सम्मेद शिखर के दर्शन पाओं।
चौपड़ा कुंड में पाश्र्व का धाम, वंदन कर करते विश्राम।
दर्शन भव्य जीव ही करते, कर्म धार कर मुक्ति वरते।।
व्यसन बुराई दर्श से हटे, नाता न तेरे दर से टूटे।
मानव को शक्ति दे देता, संकट क्षण भर में हर लेता।।
हरे भरे वृक्षों की डाली, झूम रही होकर मतवाली।
करुं अर्ज मैं कर को जोड़, तू हैं चंदा मैं हूं चकोर।।
मधुबन मंदिर शिखर सुहाना, दर्शन प्रथम यहां का पाना।
गुरुवर सुमति सागर आये, त्यागी व्रती आश्रम को पाये।।
पीत वर्ण पारस की प्रतिमा, आकर निश्चित दर्शन करना।।
आत्म ज्योति है सिद्ध स्वरुप, सिद्धालय का बनना भूप।।
आत्म ज्ञान आकर प्रकटाना, शुद्ध ज्ञान की ज्योति जलाना।।
सिद्धों की नित करोगे जाप, होंगे दूर भवों के पाप।
पारस गुफा में ध्यान लगाओं, आत्म शांति को निश्चित पावो।
पाप छोड़ तुम पुण्य को भर दो, आशा मेरी पूरी कर दो।।
शब्द अर्थ भावों से वंदन, दर्श करुं हो जाऊं चंदन।
अज्ञानी है ज्ञानी कर दो, खाली जोली तुम भर दो।।
जग के दुःखों ने आ घेरा, छूटे जन्म मरण का फेरा।
बूढ़ा बच्चा और जवान करते हैं तेरा गुण गान।।
डोल रही भवसागर नैया, प्रभुवर तुम्हीं हो खिवैया।
जग में घूम-घूम कर हारे, अब वरदान मुझे दो सारे।।
चरणों में वंदन को आऊं, बार-बार दर्शन को पाऊं।
स्वस्ति चाहे शरण में रहना, और नहीं कुछ तुमसे कहना।।

चालीसा चालीस दिन, पाठ करे जो कोए,
सुख समृद्धि आवें तुरंत, दव दरिद्र सब खोए।
तीर्थंकर श्री बीस जिन, गये जहां निर्वाण,
उनकी पावन माटी को, शत्-शत् करुं प्रणाम।।
        ।। श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र अर्थ सहित।।

नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्रं अधीशं,
शतेन्द्रं सु पूजैं भजैं नाय-शीशं।
मुनीन्द्रं गणीन्द्रं नमो जोड़ि हाथं,
नमो देव-देवं सदा पार्श्‍वनाथं॥

भावार्थ - जिनके आगे चक्रवर्ती, धरणेन्द्र, सौधर्म इन्द्र आदि सभी मस्तक को झुकाकर अपने आपको धन्य मानते है, साथ ही मनुष्यों एवं मुनिगणों में श्रेष्ठ गणधर देव भी जिनकी भक्ति भाव से हाथ जोड़ कर वन्दना करते है।ऐसे देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

गजेन्द्रं मृगेन्द्रं गह्यो तू छुड़ावे,
महा-आगतैं नागतैं तू बचावे।
महावीरतैं युद्ध में तू जितावे,
महा-रोगतैं बंधतैं तू छुड़ावे॥

भावार्थ - जिनका नाम मात्र मदमस्त हाथियों सिंहों, जंगल की आग एवं भयानक नागों से बचाने में समर्थ है, जिनके नाम के सुमिरन से युद्ध में महावीरों से भी विजय और असाध्य रोग भी नष्ट हो जाते है। ऐसे चिंतामणि श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

दुःखी-दुःखहर्ता सुखी-सुखकर्ता,
सदा सेवकों को महानंद-भर्ता।
हरे यक्ष-राक्षस भूतं पिशाचं,
विषम डाकिनी विघ्न के भय अवाचं॥

भावार्थ - जिनके दर्शन करने से दुखियों के दुःख तो दूर होते ही है और साथ ही सुख सम्पन्न लोग भी चिंताओं को भुलाकर आनंद को पाते है, जिनका स्मरण करने मात्र से भूत-पिशाच आदि का भय क्षण मात्र में ही दूर हो जाता है।ऐसे विघ्न निवारक श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने,
अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने।
महासंकटों से निकारे विधाता,
सबे संपदा सर्व को देहि दाता॥

भावार्थ - जिनके स्मरण मात्र से ही दरिद्री भी चक्रवर्ती समान हो गए और जिनके पास कोई संतान नही थी, उन्होंने भी पुत्र को प्राप्त किया। जिनका नाम ही महासंकटों का निवारण करने में सक्षम है, और जिन्होंने विश्व की सभी सम्पदाओं का दान कर दिया है। ऐसे महादानी श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

महाचोर को वज्र को भय निवारे,
महापौन के पुंजतैं तू उबारे।
महाक्रोध की अग्नि को मेघधारा,
महालोभ शैलेश को वज्र भारा॥

भावार्थ - जिनका नाम चोरों के आतंक एवं वज्र आदि के भय से शीघ्र मुक्ति दिलाता है और संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिए नौका और उनका शांत स्वरूप क्रोध रूपी दावागनल को शांत करने के लिए मेघों के समान है। जिनका नाम महलोभ रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिए वज्र का कार्य करता है, ऐसे दयानिधान श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

महामोह अंधेर को ज्ञान-भानं,
महा-कर्म-कांतार को द्यौ प्रधानं।
किये नाग-नागिन अधोलोक स्वामी,
हरयों मान तू दैत्य को हो अकामी॥

भावार्थ - जिनका ज्ञान महा मोह रूपी अंधकार को विलुप्त करने में सूर्य के समान और कर्म रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए वीर के समान है, जिन्होंने करुणामय उपदेश देकर मरते हुए नाग-नागिन को अधोलोक का स्वामी बना दिया, साथ ही जिनके क्षमा भाव ने क्षण मात्र में ही कमठ देव के मान पर विजय को प्राप्त कर लिया। ऐसे सर्व शत्रु विजयी श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

तुही कल्पवृक्षं तुही कामधेनुं,
तुही दिव्य-चिंतामणी नाग एनं।
पशु-नर्क के दुःखतैं तू छुड़ावै,
महास्वर्ग में मुक्ति में तू बसावै।।

भावार्थ - हे प्रभु! आप ही दीनों के लिए कल्पवृक्ष, आप ही दुखियों के दुःख को दूर करने के लिए कामधेनु और लोक में व्यथित जनसमूह के लिए आप ही तो चिंतामणि रत्न के समान है। आपका नाम ही पशु नरक आदि दुःख देने वाली गतियों से छुड़ाने और स्वर्ग एवं मोक्ष को दिलाने वाला है।अतः दुखों से छुड़ाकर मोक्ष सुख के लिए श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

करे लोह को हेम-पाषाण नामी,
रटे ना सो क्यों न हो मोक्षगामी।
करै सेव ताकी करैं देव सेवा,
सुने बैन सोही लहे ज्ञान मेवा॥

भावार्थ - हे प्रभु! आपका नाम मात्र लोहे को पारस रत्न के समान कंचन कर देता है।आपके नाम का स्मरण करते रहने से मोक्ष मार्ग को प्राप्त करने का कठिन मार्ग भी सुलभ हो जाता है। कहते है आपके भक्तों की देवों द्वारा सेवा की जाती है। जिन भक्तों ने भी आपके सुवचनों को सुना है वे शीघ्र ही आपके समान केवलज्ञान के धारी हो गए, अतः मैं अपने अज्ञान का दमन करने के लिए श्री पार्श्वनाथ भगवान को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

जपै जाप ताको नहीं पाप लागे,
धरे ध्यान ताके सबै दोष भागे।
बिना तोहि जाने धरे भव घनेरे,
तुम्हारी कृपातैं सरैं काम मेरे॥

भावार्थ - हे प्रभु! आपके नाम का स्मरण करते रहने से कोई भी पाप भक्त को छू तक नही सकता, आपका ध्यान करते रहने से सभी दोषों से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है। हे दीनानाथ! आपको पाये बिना ही मैं इस संसार में भटकता रहा हूँ। लेकिन अब आपकी शरण प्राप्त होने से मेरे सभी कार्य पूर्ण हो गए है अतः ऐसे शरणदाता श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।


(दोहा)

गणधर इन्द्र न कर सके,
तुम विनती भगवान।
द्यानत प्रीति निहार कै,
कीजे आप समान॥

भावार्थ - हे प्रभु ! आपके नाम की सम्पूर्ण स्तुति जब गणधर देव और इन्द्र तक नही कर सके तो मैं अर्थात द्यानतराय आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ। उनके समक्ष मैं तो अबोध बालक के समान हूँ अतः हे कृपालुदेव! आपसे बस इतनी ही विनती है कि मुझ सेवक शुभ भावना एवं प्रीति को देखकर मुझे भी अपने समान बना दीजिये।

श्री नेमिनाथ चालीसा


       ।। श्री नेमिनाथ चालीसा।।

नेमिनाथ महाराज का, चालीसा सुखकार।
मोक्ष प्राप्ति के लिए, कहूँ सुनो चितधार।।
चालीसा चालीस दिन, तक कहो चालीस बार।
बढ़े जगत सम्पत्ति सुमत, अनुपम शुद्ध विचार।।

।।चौपाई।।

जय-जय नेमिनाथ हितकारी,
नील वर्ण पूरण ब्रह्मचारी।
तुम हो बाईसवें तीर्थंकर,
शंख चिह्न सतधर्म दिवाकर।।

स्वर्ग समान द्वारिका नगरी,
शोभित हर्षित उत्तम सगरी।
नही कही चिंता आकुलता,
सुखी खुशी निशदिन सब जनता।।

समय-समय पर होती वस्तु,
सभी मगन मन मानुष जन्तु।
उच्योत्तम जिन भवन अनन्ता,
छाई जिन में वीतरागता।।

पूजा-पाठ करे सब आवें,
आतम शुद्ध भावना भावें।
करे गुणीजन शास्त्र सभाएँ,
श्रावक धर्म धार हरषायें।।

रहे परस्पर प्रेम भलाई,
साथ ही चाल शीलता आई।
समुद्रविजय की थी रजधानी,
नारी शिवादेवी पटरानी।।

छठ कार्तिक शुक्ला की आई,
सोलह स्वप्ने दिये दिखाई।
कहें राव सुन सपने सवेरे,
आये तीर्थंकर उर तेरे।।

सेवा में जो रही देवियां,
टहल करे माँ की दिन रतियाँ।
सुर दल आकर महिमा गाते,
तीनों वक्त रत्न बरसाते।।

मात शिवा के आँगन भरते,
साढ़े दस करोड़ नित गिरते।
पन्द्रह माह तक हुई लुटाई,
ले जा भर-भर लोग लुगाई।।

नौ माह बाद जन्म जब लीना,
बजे गगन खूब अनहद वीणा।
सुर चारों कायो के आये,
नाटक गायन नृत्य दिखाये।।

इंद्राणी माता ढिंग आई,
सिर पर पधराये जिनराई।
लेकर इंद्र चले हाथी पर,
पधराया पाण्डु शिला पर।।

भर-भर कलश सुरों ने दीने,
न्हवन नेमिनाथ के कीने।
इतना वहाँ सुरासुर आया,
गंधोदक का निशान पाया।।

रत्नजड़ित सम वस्त्राभूषण,
पहनाएँ इन्द्राणी जिन तन।
नगर द्वारका मात-पिता को,
आकर सौपें नेमिनाथ को।।

नाटक तांडव नृत्य दिखाएँ,
नौ भव प्रभुजी के दर्शाएँ।
बचपन गया जवानी आई,
जैनाचार्य दया मन भाई।।

कृष्ण भ्रात से बहुबलदायक,
बने नेमि गुण विद्या ज्ञायक।
श्रीकृष्ण थे जो नारायण,
तीन खण्ड का करते शासन।।

गिरिवर को जो कृष्ण उठाते,
इसकी वजह बहुत गर्माते।
नेमि भी झट उसे पकड़कर,
बहुत कृष्ण से ठाड़े ऊपर।।

बैठे नेमि नाग शय्या पर,
हर्षित शांत हुए सब विषधर।
वहाँ बैठे जब शंख बजाया,
दशों दिशा जग जन कम्पाया।।

चर्चा चली सभा के अन्दर,
यादववंशी कौन है वीरवर।
उठे नेमि यह बातें सुनकर,
उँगली में जंजीर डालकर।।

खेंचे इसे ये नेमि तेरा,
सीधा हाथ करे जो मेरा।
हम सबमें वो वीर कहावें,
पदवी राज बली की पावें।।

झुका न कोई हाथ सका था,
कृष्ण और बलराम थका था।
तबसे कृष्ण रहे चिन्तातुर,
मुझसे अधिक नेमि ताकतवर।।

कभी न राज्य लेले यह मेरा,
इसका करूँ प्रबन्ध अवेरा।
करवा नेमि शादी को राज़ी,
कोई रचूं दुर्घटना ताज़ी।।

दयावान यह नेमि कहाते,
सब जीवों पर करुणा लाते।
कैसा अब षड्यंत्र रचाऊँ,
नेमिनाथ को त्याग दिलाऊँ।।

उग्रसेन नृप जूनागढ़ के,
राजुल एक सुता थी जिनके।
चन्द्रमुखी, गुणवती, सुशीला,
सुन्दर कोमल बदन गठीला।।

उससे करी नेमि की मगनी,
परम योग्य यह साजन-सजनी।
जूनागढ़ नृप खुशी मनाई,
भेज द्वारका गयी सगाई।।

हीरे-मोती लाल जवाहर,
नानाविध पकवान मनोहर।
रत्नजड़ित सब वस्त्राभूषण,
भेजे सकल पदारथ मोहन।।

शुभ महूर्त में हुई सगाई,
भये प्रफुल्लित यादवराई।
की जो नारी नगर की धारी,
किये सुखी सब दुखी भिखारी।।

दिए किसी को रथ गज घोड़े,
दिए किसी को कंगन थोड़े।
दिए किसी को सुन्दर जोड़े,
दिन जब रहे विवाह के थोड़े।।

कीनी चलने की तैयारी,
आये सम्बन्धी न्यौतारी।
छप्पन करोड़ कुटुम्बी सारे,
और बाराती लाखों न्यारे।।

चले करमचारी सेवकगण,
छवि चढत की क्या हो वर्णन।
जब जूनागढ़ की हद आयी,
कृष्ण नगर में पहुँचे जायी।।

खेपाड़े में पशु भी आये,
भूख प्यास भय से चिल्लाये।
नेमि की बारात चढ़ी जब,
द्वारे पर आकर अटकी तब।।

चिल्लाहट पशुओं की सुनकर,
छाई दया दयालु दिल पर।
बोले बन्द किये क्यों इनको,
कभी न परदुख भाता मुझको।।

तुम बारातियों की दावत में,
देने को बांधे भोजन में।
सुन यह बात नेमि कम्पाये,
वस्त्राभूषण दूर हटाये।।

शादी अब में नही करूँगा,
जग को तज निज ध्यान धरूँगा।
जा पशुओं के बंधन खोलें,
पिता समुद्रविजय तब बोले।।

छोड़ो पशु अब धीरज धारो,
चलो ससुर के द्वार पधारो।
जगत पिताजी सब मतलब का,
मन सुख में कुछ ध्यान न पर का।।

खुद तो नित्यानन्द उठावें,
पर की जान भले ही जावें।
चाहत हमें दुखी करने का,
जब निज भाव सुखी रहने का।।

जैनवंश नरभव यह पाकर,
जन्म-जन्म पछताऊँ खोकर।
दो दिन की यह राजदुलारी,
तज कर वरु अचल शिवनारी।।

सभी तौर समझाकर हारे,
पर नेमि गिरनार सिधारे।
चाहे कहो भ्रात को धोखा,
चाहो कहो निमित्त अनोखा।।

चाहे कहो पशु कुल की रक्षा,
चाहे कहो यही थी इच्छा।
पिच्छी बगल कमण्डल लेकर,
जाते चार हाथ मग लखकर।।

महलों खड़ी देख यह राजुल,
गिरी मूर्च्छित होकर व्याकुल।
जब सखियों ने होश दिलाया,
माता ने यह वचन सुनाया।।

रंग-ढंग क्यों बिगड़े है तेरे,
फेर  न उनके कोई फेरे।
पुत्री न चिन्ता व्यर्थ करो तुम,
खेलो, खाओ, जियो, हँसो तुम।।

करो दान सामायिक पूजा,
शादी करूँ देख वर दूजा।
सुनो मात यह बात हमारी,
मुनिराज एक समय उचारी।।

नौ भव के प्रेमी वह तेरे,
अब जग नाम तुम्हारा ठेरे।
सुरनगरी, शिवनगरी जाऊँ,
आप तिरु संसार तिराऊं।।

पूज्य गुरु के अटल वचन है,
तप वैराग्य भावना मन है।
माता-पिता सहेली सखियों,
मुझे भूल सब धीरज धरियों।।

नारी धरम नही यह छोडूं,
विषय भोग जग से मुख मोडूँ।
भूषण वसन निःशंक उतारकर,
धोती शुद्ध सफेद धारकर।।

पथिक बनी मैं भी उस पथ की,
प्रीति निभाऊँगी दस भव की।
आगे-पीछे दोनों जाते,
सुर नर पुष्प रत्न बरसाते।।

जूनागढ़ वासी हर्षाते,
महिमा त्याग रूप की गाते।
गई आर्यिका बनकर गिरी पर,
नेमि पास चढ़ सकी न ऊपर।।

तेरे दर्शन कारण प्रीति,
निजानन्द अनुभव रस पीती।
ध्यान आरूढ़ गुफा में रहती,
निर्भय नित्य नियम तप करती।।

कभी दूर नेमि के दर्शन,
कर गाती हर्षित गुणगायन।
कीने हितवन केवलज्ञानी,
समवशरण में फैली वाणी।।

समवशरण जिस नगरी जाता,
कोस चार सौ तक सुख आता।
चालीस हाथ आप अरिहर थे,
सेवा में ग्यारह गणधर थे।।

उम्र तीन सौ में ले दीक्षा,
वर्ष सात सौ थी जिन शिक्षा।
लाखों दुखिया पार लगाएं,
आयु सहस वर्ष शिव पाए।।

राजुल जीव राज सुर पाया,
तभी पूज्य गिरनार सहाया।
धर्म लाभ जो श्रावक पाए,
सुमत लगत मन हम भी जाएं।।

।।दोहा।।

नित चालिसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन।
खेये सुगन्ध सुसार, नेमिनाथ के सामने।।
होवें चित्त प्रसन्न, भय, चिंता शंका मिटे।
पाप होय सब अन्त, बल-विद्या-वैभव बढ़े।।

।।अहिच्छत्र पार्श्वनाथ चालीसा।।
 सुर,नर, किन्नर, मुनिवर गणधर जिनका निशदिन गुण गाते है। जिनके सुमिरण से भक्तों को मनवांछित फल मिल जाते है।।1।।

 मैं भक्ति भावना से प्रेरित पारस प्रभु के गुण गाता हूँ। पारस प्रभु के दर्शन पाकर में धन्य धन्य हो जाता हूँ।।2।।

मैं पूज्यपाद अरहंत सिद्ध श्रीआचार्यों को ध्याता हूँ। में उपाध्याय सब संतों को नत होकर शीश झुकाता हूँ।।3।।

तुम हो तिखाल वाले बाबा तुमको मन में पध्राता हूँ। दर्शन का शुभ अवसर पाकर गद-गद होकर हर्षाता हूँ।।4।।

 ये रामनगर का बड़ा किला है पांचालो की राजधानी है। हे पारस! तुमसे हार यही उस कमठाचर ने मानी है।।5।।

अहिच्छत्र भूमि की यशगाथा पारस पुराण बतलाता है। इसके महात्मय को पढ़कर मन आश्चर्यचकित रह जाता है।।6।।

 इस भू पर ही पारस तुमने शुभ केवलज्ञान उपाया है। जिसके कारण इस नगरी ने अहिच्छत्र परमपद पाया है।।7।।

धरणेन्द्र और पद्मावती ने फण मंडप यहाँ रचाया है। इस अतिशय के द्वारा ही यह अतिशय तीरथ कहलाया है।।8।।

 यह वामा के तेइसवे सुत तीर्थंकर की यशगाथा है। पार्श्व कमल पर मोहित मन मधुकर बनकर मंडराता है।।9।।

श्री अश्वसेन राजा के तुम हे पारस! राजदुलारे हो। गुणवंती वामा माता के आँखों के उज्जवल तारें हो।।10।।

घनघोर परेशानी सहकर तुमने अहिच्छत्र बनाया है। शठ कमठाचर को तुमने ही तप द्वारा यहाँ हराया है।।11।।

श्री पात्रकेशरी स्वामी ने जैनत्व यही पर पाया है। श्रद्धान पाँच सौ शिष्यों को जिनमत पर यही कराया है।।12।।

वेदी तिखाल बाबा की जो देती अब तक दिखलाई है। सुनते है देवों इन्द्रों ने यह रातों रात बनाई है।।13।।
तुम पर ही निर्जन वन में बरसे ओलें शोलें पत्थर पानी। पर कठिन तपस्या के आगे चल सकी न शठ की मनमानी।।14।।

उस कमठाचर ने बैर भाव बैरी बन दस भव तक ठाना। फिर करनी में असफल होकर अपनी मूरखता पहचाना।।15।।

जिसने बैरी से बैर किया नरकों की अपनाई। रमते-रमते,भ्रमते-भ्रमते प्रभु आज तुम्हे पहचाना है।।16।।

परिवार परिग्रह वैभव में मिलती न ज़रा सुख साता है। धनवान वही है इस जग में जो उनकी शरण आता है।।17।।

अपने उद्धार हेतु जिनवर में शरण आपकी आया हूँ। मैं आत्मशांति से भरने को बस खाली झोली लाया हूँ।।18।।

भक्तों को ऐसे चमत्कार उपकार भरा मिल जाता है। जिसके द्वारा विपदाओं से प्राणी छुटकारा पाता है।।19।।

तुम गुणनिधान महिमा महान दैदीप्यमान उजियारा हो। उसके संकट मिट जाते है जिसने भी तुम्हे पुकारा हो।।20।।

मेरी जिह्वा से निशिवासर पारस गुणगान तुम्हारा हो। मेरे अंतरमन में स्वामी सुखदायक ध्यान तुम्हारा हो।।21।।

यह मेरे नैन निरंतर ही पारस प्रभु के दर्शन पाएँ। अपने इन दुर्लभ नैनों को हम सार्थक करके दिखलाएँ।।22।।

जिसको सुनकर तर जाते है भवसागर में भटके प्राणी। कान हमारे धन्य बने है सुनकर तीर्थंकर की वाणी।।23।।

जिनराज तुम्हारे दर्शन की जागी मन में अभिलाषा हो। मेरे उर के सिंहासन पर भगवान तुम्हारा वासा हो।24।।

मेरे ये दोनों हाथ प्रभु पूजन की सामिग्री लाए। प्रभु के चरणों में भाव सहित सर्वस्व चढाकर हर्षाए।।25।।

मेरे ये दोनों पाँव सदा अहिच्छत्र नमन को आयेंगे। पारस प्रभु के दर्शन पाकर दुर्लभ सुख साता पायेंगे।।26।।

आते है जो शरण तुम्हारी खाली हाथ वो नही जाते है। अपनी-अपनी आशाओं का सब मनवांछित फल पाते है।।27।।

सन् सत्तावन में जो माली जिन्मूर्ति यहाँ ले आया था। जो कुआँ क्षेत्र पे है उसने मूरत को वहाँ छिपाया था।।28।।

उस दिन से यह कुआँ अब तक कितना महान उपकारी है। इसका पवित्र जल पीनें से मिटती असाध्य बीमारी है।।29।।

 वसुपाल भूप मंदिर रचकर उसमे पॉलिश करवाता था। पर वह पॉलिश तत्काल स्वयं पीछे से गिरता आता था।।30।।

मुनि द्वारा अब भेद खुला यह कारीगर है माँसाहारी। उसने भी मासँ न खाने की आजन्म प्रतिज्ञा सुखकारी।।31।।

 तत्काल विघ्न निष्फल होकर पारस का जय-जयकार हुआँ। अतिशय यह चमत्कारों द्वारा अहिच्छत्र सुखों का द्वार हुआँ।।32।।

इस अतिशय तीर्थ क्षेत्र में जो पारस से ध्यान लगाते है। चिंताओं से विपदाओं से वह छुटकारा पा जाते है।।33।।

भौतिक पारस मणि तो केवल लोहे को स्वर्ण बनाती है। पारस के चरणों को छू कर आत्मा कुंदन बन जाती है।।34।।

अरहंत आपके चरणों में अपने अंतरपट खोलेंगे। नित भक्ति भाव से प्रेरित होकर पारस प्रभु की जय बोलेंगे।।35।।

इस पार्श्वनाथ चालिसे का जो मन से पाठ रचाएँगे। इस जग की सकल संपदाएँ अपने चरणों में पाएँगे।।36।।

 ।।इति श्री अहिच्छत्र पार्श्वनाथ चालीसा।।

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