।।श्री महावीर चालीसा 2।।
।। दोहा।।
सिद्ध और अरिहंत का, है सुखकारी नाम।
आचार्य उपाध्याय साधु के, करते चरण प्रणाम।।
वर्धमान, सन्मति तथा वीर और अतिवीर।
महावीर की वंदना, से बदले तकदीर।।
।। चौपाई।।
जय जय वर्धमान जिन स्वामी।
शान्ति मनोहर छवि है नामी।।
तीर्थंकर प्रकृति के धारी।
सर्व जहां में मंगलकारी।।
पुरुषोत्तम विमान से आये।
माँ को सोलह स्वप्न दिखाये।।
राजा सिद्धारथ कहलाय।
कुण्डलपुर के भूप कहाय।।
षष्ठी शुक्ल आषाढ़ कहाय।
गर्भ में चय करके प्रभु आये।।
चैत्र शुक्ल तेरस दिन आया।
जन्म प्रभु ने जिस दिन पाया।।
नक्षत्र उत्तरा फाल्गुन जानो।
अंतिम पहर रात का मानो।।
इन्द्र तभी ऐरावत लाया।
पाण्डुक शिला पर नव्हन कराया।।
प्रभु के पद में शीश झुकाया।
पग में चिह्न शेर का पाया।।
वर्धमान तब नाम बताया।
जयकारे से गगन गुंजाया।।
पलना प्रभु का मात झुलाये।
ऋद्धिधारी मुनिवर आये।।
मन में प्रश्न मुनि के आया।
जिसका समाधान न पाया।।
देख प्रभु को हल कर लीन्हा।
सन्मति नाम प्रभु का दीन्हा।।
मित्रो संग क्रीड़ा को आये।
सभी वीरता लख हरषायें।।
देव परीक्षा लेने आया।
नाग का उसने रूप बनाया।।
भागे मित्र सभी भय खाये।
किन्तु प्रभु नही घबराये।।
पेर की ठोकर सिर में मारी।
देव तभी चीखा अतिभारी।।
उसने चरणों ढोक लगाया।
वीर नाम प्रभु का बतलाया।।
युवावस्था प्रभुजी पाये।
करके सेर नगर में आये।।
हाथी ने उत्पात मचाये।
मद उसका प्रभु पूर्ण नशाय।।
प्रभु अतिवीर नाम को पाये।
सभी प्रशंसा कर हरषायें।।
बाल ब्रह्मचारी कहलाय।
तीस वर्ष में दीक्षा पाये।।
जातिस्मरण प्रभु को आया।
तभी मन में वैराग्य समाया।।
माघ कृष्ण दशमी दिन पाया।
नक्षत्र उत्तरा फाल्गुन गाया।।
तृतीया भक्त प्रभुजी पाये।
दीक्षा धर एकाकी आये।।
स्वर्ण रंग प्रभु का शुभ गाया।
सप्त हाथ अवगाहन पाया।।
प्रभु नाथ वन में फिर आये।
साल तरुतल ध्यान लगाये।।
कामदेव रति वन में आये।
जग को जीता ऐसा गाये।।
रति ने प्रभु का दर्शन पाया।
कामदेव से वचन सुनाया।।
इन्हें जीत पाये क्या स्वामी?
नग्न खड़े जो शिवपथगामी।।
प्रभु को ध्यान से खूब डिगाया।
किन्तु उन्हें डिगा न पाया।।
कामदेव पद शीश झुकाया।
महावीर तब नाम बताया।।
दश शुक्ल वैशाख बखानी।
हुए प्रभुजी केवलज्ञानी।।
ऋजुकूला का तीर बताया।
शाल वृक्ष वनखण्ड कहाया।।
समवशरण एक योजन जानो।
योग निवृत्ति अनुपम मानो।।
कार्तिक कृष्ण अमावस पाये।
महावीर जिन मोक्ष सिधाये।।
पावागिरी तीर्थ कहलाय।
चाँदनपुर में प्रभु प्रगटाये।।
यही भावना रही हमारी।
जनता सुखमय होवे सारी।।
चरणकमल में हम सिर नाते।
विशद भाव से शीश झुकाते।।
।।दोहा।।
चालीसा चालीस दिन,दिन में चालीस बार।
पढ़ने से सुख-शांति हो, मिले मोक्ष का द्वार।।
●मुनि श्री 108 श्री विशदसागरजी कृत●
।। दोहा।।
सिद्ध और अरिहंत का, है सुखकारी नाम।
आचार्य उपाध्याय साधु के, करते चरण प्रणाम।।
वर्धमान, सन्मति तथा वीर और अतिवीर।
महावीर की वंदना, से बदले तकदीर।।
।। चौपाई।।
जय जय वर्धमान जिन स्वामी।
शान्ति मनोहर छवि है नामी।।
तीर्थंकर प्रकृति के धारी।
सर्व जहां में मंगलकारी।।
पुरुषोत्तम विमान से आये।
माँ को सोलह स्वप्न दिखाये।।
राजा सिद्धारथ कहलाय।
कुण्डलपुर के भूप कहाय।।
षष्ठी शुक्ल आषाढ़ कहाय।
गर्भ में चय करके प्रभु आये।।
चैत्र शुक्ल तेरस दिन आया।
जन्म प्रभु ने जिस दिन पाया।।
नक्षत्र उत्तरा फाल्गुन जानो।
अंतिम पहर रात का मानो।।
इन्द्र तभी ऐरावत लाया।
पाण्डुक शिला पर नव्हन कराया।।
प्रभु के पद में शीश झुकाया।
पग में चिह्न शेर का पाया।।
वर्धमान तब नाम बताया।
जयकारे से गगन गुंजाया।।
पलना प्रभु का मात झुलाये।
ऋद्धिधारी मुनिवर आये।।
मन में प्रश्न मुनि के आया।
जिसका समाधान न पाया।।
देख प्रभु को हल कर लीन्हा।
सन्मति नाम प्रभु का दीन्हा।।
मित्रो संग क्रीड़ा को आये।
सभी वीरता लख हरषायें।।
देव परीक्षा लेने आया।
नाग का उसने रूप बनाया।।
भागे मित्र सभी भय खाये।
किन्तु प्रभु नही घबराये।।
पेर की ठोकर सिर में मारी।
देव तभी चीखा अतिभारी।।
उसने चरणों ढोक लगाया।
वीर नाम प्रभु का बतलाया।।
युवावस्था प्रभुजी पाये।
करके सेर नगर में आये।।
हाथी ने उत्पात मचाये।
मद उसका प्रभु पूर्ण नशाय।।
प्रभु अतिवीर नाम को पाये।
सभी प्रशंसा कर हरषायें।।
बाल ब्रह्मचारी कहलाय।
तीस वर्ष में दीक्षा पाये।।
जातिस्मरण प्रभु को आया।
तभी मन में वैराग्य समाया।।
माघ कृष्ण दशमी दिन पाया।
नक्षत्र उत्तरा फाल्गुन गाया।।
तृतीया भक्त प्रभुजी पाये।
दीक्षा धर एकाकी आये।।
स्वर्ण रंग प्रभु का शुभ गाया।
सप्त हाथ अवगाहन पाया।।
प्रभु नाथ वन में फिर आये।
साल तरुतल ध्यान लगाये।।
कामदेव रति वन में आये।
जग को जीता ऐसा गाये।।
रति ने प्रभु का दर्शन पाया।
कामदेव से वचन सुनाया।।
इन्हें जीत पाये क्या स्वामी?
नग्न खड़े जो शिवपथगामी।।
प्रभु को ध्यान से खूब डिगाया।
किन्तु उन्हें डिगा न पाया।।
कामदेव पद शीश झुकाया।
महावीर तब नाम बताया।।
दश शुक्ल वैशाख बखानी।
हुए प्रभुजी केवलज्ञानी।।
ऋजुकूला का तीर बताया।
शाल वृक्ष वनखण्ड कहाया।।
समवशरण एक योजन जानो।
योग निवृत्ति अनुपम मानो।।
कार्तिक कृष्ण अमावस पाये।
महावीर जिन मोक्ष सिधाये।।
पावागिरी तीर्थ कहलाय।
चाँदनपुर में प्रभु प्रगटाये।।
यही भावना रही हमारी।
जनता सुखमय होवे सारी।।
चरणकमल में हम सिर नाते।
विशद भाव से शीश झुकाते।।
।।दोहा।।
चालीसा चालीस दिन,दिन में चालीस बार।
पढ़ने से सुख-शांति हो, मिले मोक्ष का द्वार।।
●मुनि श्री 108 श्री विशदसागरजी कृत●