।।अहिच्छत्र पार्श्वनाथ चालीसा।।
सुर,नर, किन्नर, मुनिवर गणधर जिनका निशदिन गुण गाते है। जिनके सुमिरण से भक्तों को मनवांछित फल मिल जाते है।।1।।
मैं भक्ति भावना से प्रेरित पारस प्रभु के गुण गाता हूँ। पारस प्रभु के दर्शन पाकर में धन्य धन्य हो जाता हूँ।।2।।
मैं पूज्यपाद अरहंत सिद्ध श्रीआचार्यों को ध्याता हूँ। में उपाध्याय सब संतों को नत होकर शीश झुकाता हूँ।।3।।
तुम हो तिखाल वाले बाबा तुमको मन में पध्राता हूँ। दर्शन का शुभ अवसर पाकर गद-गद होकर हर्षाता हूँ।।4।।
ये रामनगर का बड़ा किला है पांचालो की राजधानी है। हे पारस! तुमसे हार यही उस कमठाचर ने मानी है।।5।।
अहिच्छत्र भूमि की यशगाथा पारस पुराण बतलाता है। इसके महात्मय को पढ़कर मन आश्चर्यचकित रह जाता है।।6।।
इस भू पर ही पारस तुमने शुभ केवलज्ञान उपाया है। जिसके कारण इस नगरी ने अहिच्छत्र परमपद पाया है।।7।।
धरणेन्द्र और पद्मावती ने फण मंडप यहाँ रचाया है। इस अतिशय के द्वारा ही यह अतिशय तीरथ कहलाया है।।8।।
यह वामा के तेइसवे सुत तीर्थंकर की यशगाथा है। पार्श्व कमल पर मोहित मन मधुकर बनकर मंडराता है।।9।।
श्री अश्वसेन राजा के तुम हे पारस! राजदुलारे हो। गुणवंती वामा माता के आँखों के उज्जवल तारें हो।।10।।
घनघोर परेशानी सहकर तुमने अहिच्छत्र बनाया है। शठ कमठाचर को तुमने ही तप द्वारा यहाँ हराया है।।11।।
श्री पात्रकेशरी स्वामी ने जैनत्व यही पर पाया है। श्रद्धान पाँच सौ शिष्यों को जिनमत पर यही कराया है।।12।।
वेदी तिखाल बाबा की जो देती अब तक दिखलाई है। सुनते है देवों इन्द्रों ने यह रातों रात बनाई है।।13।।
तुम पर ही निर्जन वन में बरसे ओलें शोलें पत्थर पानी। पर कठिन तपस्या के आगे चल सकी न शठ की मनमानी।।14।।
उस कमठाचर ने बैर भाव बैरी बन दस भव तक ठाना। फिर करनी में असफल होकर अपनी मूरखता पहचाना।।15।।
जिसने बैरी से बैर किया नरकों की अपनाई। रमते-रमते,भ्रमते-भ्रमते प्रभु आज तुम्हे पहचाना है।।16।।
परिवार परिग्रह वैभव में मिलती न ज़रा सुख साता है। धनवान वही है इस जग में जो उनकी शरण आता है।।17।।
अपने उद्धार हेतु जिनवर में शरण आपकी आया हूँ। मैं आत्मशांति से भरने को बस खाली झोली लाया हूँ।।18।।
भक्तों को ऐसे चमत्कार उपकार भरा मिल जाता है। जिसके द्वारा विपदाओं से प्राणी छुटकारा पाता है।।19।।
तुम गुणनिधान महिमा महान दैदीप्यमान उजियारा हो। उसके संकट मिट जाते है जिसने भी तुम्हे पुकारा हो।।20।।
मेरी जिह्वा से निशिवासर पारस गुणगान तुम्हारा हो। मेरे अंतरमन में स्वामी सुखदायक ध्यान तुम्हारा हो।।21।।
यह मेरे नैन निरंतर ही पारस प्रभु के दर्शन पाएँ। अपने इन दुर्लभ नैनों को हम सार्थक करके दिखलाएँ।।22।।
जिसको सुनकर तर जाते है भवसागर में भटके प्राणी। कान हमारे धन्य बने है सुनकर तीर्थंकर की वाणी।।23।।
जिनराज तुम्हारे दर्शन की जागी मन में अभिलाषा हो। मेरे उर के सिंहासन पर भगवान तुम्हारा वासा हो।24।।
मेरे ये दोनों हाथ प्रभु पूजन की सामिग्री लाए। प्रभु के चरणों में भाव सहित सर्वस्व चढाकर हर्षाए।।25।।
मेरे ये दोनों पाँव सदा अहिच्छत्र नमन को आयेंगे। पारस प्रभु के दर्शन पाकर दुर्लभ सुख साता पायेंगे।।26।।
आते है जो शरण तुम्हारी खाली हाथ वो नही जाते है। अपनी-अपनी आशाओं का सब मनवांछित फल पाते है।।27।।
सन् सत्तावन में जो माली जिन्मूर्ति यहाँ ले आया था। जो कुआँ क्षेत्र पे है उसने मूरत को वहाँ छिपाया था।।28।।
उस दिन से यह कुआँ अब तक कितना महान उपकारी है। इसका पवित्र जल पीनें से मिटती असाध्य बीमारी है।।29।।
वसुपाल भूप मंदिर रचकर उसमे पॉलिश करवाता था। पर वह पॉलिश तत्काल स्वयं पीछे से गिरता आता था।।30।।
मुनि द्वारा अब भेद खुला यह कारीगर है माँसाहारी। उसने भी मासँ न खाने की आजन्म प्रतिज्ञा सुखकारी।।31।।
तत्काल विघ्न निष्फल होकर पारस का जय-जयकार हुआँ। अतिशय यह चमत्कारों द्वारा अहिच्छत्र सुखों का द्वार हुआँ।।32।।
इस अतिशय तीर्थ क्षेत्र में जो पारस से ध्यान लगाते है। चिंताओं से विपदाओं से वह छुटकारा पा जाते है।।33।।
भौतिक पारस मणि तो केवल लोहे को स्वर्ण बनाती है। पारस के चरणों को छू कर आत्मा कुंदन बन जाती है।।34।।
अरहंत आपके चरणों में अपने अंतरपट खोलेंगे। नित भक्ति भाव से प्रेरित होकर पारस प्रभु की जय बोलेंगे।।35।।
इस पार्श्वनाथ चालिसे का जो मन से पाठ रचाएँगे। इस जग की सकल संपदाएँ अपने चरणों में पाएँगे।।36।।
।।इति श्री अहिच्छत्र पार्श्वनाथ चालीसा।।
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