।।स्वयंभू स्तोत्र।।
1. आदिम तीर्थंकर प्रभो!
आदिनाथ मुनिनाथ।
आधि-व्याधि अघ मद मिटे,
तुम पद में मम माथ।।
शरण चरण हैं आपके,
तारण तरन जिहाज।
भव दधि तट तक ले चलो,
करुणा कर जिनराज।।
2. जित इन्द्रिय जित मद बने,
जित भव विजित कषाय।
अजितनाथ को नित नमूं,
अर्जित दुरित पलाय।।
कोंपल पल-पल को पले,
वन में ऋतु पति आय।
पुलकित मम जीवन लता,
मन में जिन पद पाय।।
3. तुम पद पंकज से प्रभु,
झर-झर झरी पराग।
जब तक शिव सुख ना मिले,
पीऊँ षट्पद जाग।।
भव-भव भव-वन भ्रमित हो,
भ्रमता-भ्रमता आज।
संभव जिन भव शिव मिले,
पूरण हुआ मम काज।।
4. विषयों को विष लख तजूं,
बनकर विषयातीत।
विषय बना ऋषि ईश को,
गाऊं उनका गीत।।
गुण धारे पर मद नहीं,
मृदुतम हो नवनीत।
अभिनन्दन जिन ! नित नमूं,
मुनि बन में भवभीत।।
5. सुमतिनाथ प्रभु ! सुमति हो,
मम मति है अति मंद।
बोध कली खुल-खिल उठे,
महक उठे मकरंद।।
तुम जिन मेघ मयूर मैं,
गरजो-बरसो नाथ।
चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा,
ऊपर करके माथ।।
6. शुभ्र सरल तुम बाल तब,
कुटिल कृष्ण तब नाग।
तब चिति चित्रित ज्ञेय से,
किन्तु न उसमें दाग।।
विराग पद्मप्रभु आपके ,
दोनों पाद सरग।
रागी मम मन जा वहीं,
पीता तभी पराग।।
7. अबंध भाते काटके,
वसु विध विधि का बंध।
सुपार्श्व प्रभु निज प्रभुपना,
पा पाए आनंद।।
बांध-बांध विधि बंध मैं,
अंध बना मति मंद।
ऐसा बल दो अंध को,
बंधन तोडूं द्वंद्व।।
8. चन्द्र कलंकित किन्तु हो,
चन्द्रप्रभु अकलंक।
वह तो शंकित केतु से,
शंकर तुम निःशंक।।
रंक बना हूँ मम अत:,
मेटो मन का पंक।
जाप जपूँ जिननाम का,
बैठ सदा पर्यंक।।
9. सुविधि! सुविधि के पूर हो,
विधि से हो अति दूर।
मम मन से मत दूर हो,
विनती हो मंजूर।।
बाल मात्र भी ज्ञान ना,
मुझमें मैं मुनि बाल।
बवाल भव का मम मिटे,
प्रभु पद में मम भाल।।
10. शीतल चन्दन है नहीं,
शीतल हिम ना नीर।
शीतल जिन तब मत रहा,
शीतल हरता पीर।।
सुचिर काल से मैं रहा,
मोह नींद से सुप्त।
मुझे जगाकर कर कृपा,
प्रभो करो परितृप्त।।
11. अनेकांत की कांति से,
हटा तिमिर एकांत।
नितांत हर्षित कर दिया,
क्लांत विश्व को शांत।।
नि:श्रेयस् सुख धाम हो,
हे जिनवर! श्रेयांस।
तव थुति अविरल मैं करूँ,
जब लों घट में श्वाँस।।
12. वसु-विध मंगल-द्रव्य ले,
जिन पूजों सागार।
पाप घटे फलत: फले,
पावन पुण्य अपार।।
बिना द्रव्य शुचि भाव से,
जिन पूजों मुनि लोग।
बिन निज शुभ उपयोग के,
शुद्ध न हो उपयोग।।
13. कराल काला व्याल सम,
कुटिल चाल का काल।
मार दिया तुमने उसे,
फाड़ा उसका गाल।।
मोह अमल वश संबल बन,
निर्बल मैं भगवान।
विमलनाथ! तुम अमल हो,
संबल दो भगवान।।
14. अनंत गुण पा कर दिया,
अनंत भव का अंत।
‘अनंत’ सार्थक नाम तब,
अनंत जिन जयवंत।।
अनंत सुख पाने सदा,
भव से हो भयवंत।
अंतिम क्षण तक मैं तुम्हें,
स्मरुं स्मरें सब संत।।
15. दयाधर्म वर धर्म है,
अदया भाव अधर्म।
अधर्म तज प्रभु ‘धर्म ने’,
समझाया पुनि धर्म।।
धर्मनाथ को नित नमूं,
सधे शीघ्र शिव शर्म।
धर्म-मर्म को लख सकूँ,
मिटे मलिन मम कर्म।।
16. शांतिनाथ हो शांत कर,
साता साता सांत।
केवल- केवल ज्योतिमय,
क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त।।
सकलज्ञान से सकल को,
जान रहे जगदीश।
विकल रहे जड़ देह से,
विमल नमूं नत-शीश।।
17. ध्यान अग्नि से नष्ट कर,
प्रथम पाप परिताप।
कुंथुनाथ पुरुषार्थ से,
बने न अपने आप।
ऐसी मुझपे हो कृपा,
मम मन मुझमे आय।
जिस विध पल में लवण है,
जल में घुल मिल जाय।।
18. नाम मात्र भी नहीं रखो,
नाम काम से काम।
ललाम आतम में करो,
विराम आठों याम।।
नाम धरो ‘अर’ नाम तव,
अत: स्मरूं अविराम।
अनाम बन शिव धाम में,
काम बनूँ कृत काम।।
19. मोह मल्ल को मारकर,
मल्लिनाथ जिनदेव।
अक्षय बनकर पा लिया,
अक्षय सुख स्वयमेव।।
बाल ब्रह्मचारी विभो,
बाल समान विराग।
किसी वस्तु से राग ना,
मम तव पद से राग।।
20. मुनि बन मुनिपन में निरत,
हो मुनि यति बिन स्वार्थ।
मुनिव्रत का उपदेश दे,
हमको किया कृतार्थ।।
यही भावना मम रही,
मुनिव्रत पाल यथार्थ।
मैं भी ‘मुनिसुव्रत’ बनूँ,
पावन पाय पदार्थ।।
21. अनेकांत का दास हो,
अनेकांत की सेव।
करूँ गहूँ मैं शीघ्र से,
अनेक गुण स्वयमेव।।
अनाथ मैं जगनाथ हो,
नमिनाथ दो साथ।
तव पद में दिन-रात हो,
हाथ जोड़ नत माथ।।
22. नील-गगन में अधर हो,
शोभित निज में लीन।
नील कमल आसीन हो,
नीलम से अति नील।।
शील-झील में तैरते,
नेमि जिनेश सलील।
शील डोर मुझ बांध दो,
डोर करो मत ढील।।
23. खास-दास की आस बस,
श्वास-श्वास पर वास।
पार्श्व! करो मत दास को,
उदासता का दास।।
ना तो सुर सुख चाहता,
शिव सुख की न चाह।
तव थुति सरवर में सदा,
होवे मम अवगाह।।
24. नीर-निधि से धीर हो,
वीर बने गंभीर।
पूर्ण तैरकर पा लिया,
भवसागर का तीर।।
अधीर हो मुझे धीर दो,
सहन करूँ सब पीर।
चीर-चीर कर चिर लखूँ,
अंतर की तस्वीर।।
1. आदिम तीर्थंकर प्रभो!
आदिनाथ मुनिनाथ।
आधि-व्याधि अघ मद मिटे,
तुम पद में मम माथ।।
शरण चरण हैं आपके,
तारण तरन जिहाज।
भव दधि तट तक ले चलो,
करुणा कर जिनराज।।
2. जित इन्द्रिय जित मद बने,
जित भव विजित कषाय।
अजितनाथ को नित नमूं,
अर्जित दुरित पलाय।।
कोंपल पल-पल को पले,
वन में ऋतु पति आय।
पुलकित मम जीवन लता,
मन में जिन पद पाय।।
3. तुम पद पंकज से प्रभु,
झर-झर झरी पराग।
जब तक शिव सुख ना मिले,
पीऊँ षट्पद जाग।।
भव-भव भव-वन भ्रमित हो,
भ्रमता-भ्रमता आज।
संभव जिन भव शिव मिले,
पूरण हुआ मम काज।।
4. विषयों को विष लख तजूं,
बनकर विषयातीत।
विषय बना ऋषि ईश को,
गाऊं उनका गीत।।
गुण धारे पर मद नहीं,
मृदुतम हो नवनीत।
अभिनन्दन जिन ! नित नमूं,
मुनि बन में भवभीत।।
5. सुमतिनाथ प्रभु ! सुमति हो,
मम मति है अति मंद।
बोध कली खुल-खिल उठे,
महक उठे मकरंद।।
तुम जिन मेघ मयूर मैं,
गरजो-बरसो नाथ।
चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा,
ऊपर करके माथ।।
6. शुभ्र सरल तुम बाल तब,
कुटिल कृष्ण तब नाग।
तब चिति चित्रित ज्ञेय से,
किन्तु न उसमें दाग।।
विराग पद्मप्रभु आपके ,
दोनों पाद सरग।
रागी मम मन जा वहीं,
पीता तभी पराग।।
7. अबंध भाते काटके,
वसु विध विधि का बंध।
सुपार्श्व प्रभु निज प्रभुपना,
पा पाए आनंद।।
बांध-बांध विधि बंध मैं,
अंध बना मति मंद।
ऐसा बल दो अंध को,
बंधन तोडूं द्वंद्व।।
8. चन्द्र कलंकित किन्तु हो,
चन्द्रप्रभु अकलंक।
वह तो शंकित केतु से,
शंकर तुम निःशंक।।
रंक बना हूँ मम अत:,
मेटो मन का पंक।
जाप जपूँ जिननाम का,
बैठ सदा पर्यंक।।
9. सुविधि! सुविधि के पूर हो,
विधि से हो अति दूर।
मम मन से मत दूर हो,
विनती हो मंजूर।।
बाल मात्र भी ज्ञान ना,
मुझमें मैं मुनि बाल।
बवाल भव का मम मिटे,
प्रभु पद में मम भाल।।
10. शीतल चन्दन है नहीं,
शीतल हिम ना नीर।
शीतल जिन तब मत रहा,
शीतल हरता पीर।।
सुचिर काल से मैं रहा,
मोह नींद से सुप्त।
मुझे जगाकर कर कृपा,
प्रभो करो परितृप्त।।
11. अनेकांत की कांति से,
हटा तिमिर एकांत।
नितांत हर्षित कर दिया,
क्लांत विश्व को शांत।।
नि:श्रेयस् सुख धाम हो,
हे जिनवर! श्रेयांस।
तव थुति अविरल मैं करूँ,
जब लों घट में श्वाँस।।
12. वसु-विध मंगल-द्रव्य ले,
जिन पूजों सागार।
पाप घटे फलत: फले,
पावन पुण्य अपार।।
बिना द्रव्य शुचि भाव से,
जिन पूजों मुनि लोग।
बिन निज शुभ उपयोग के,
शुद्ध न हो उपयोग।।
13. कराल काला व्याल सम,
कुटिल चाल का काल।
मार दिया तुमने उसे,
फाड़ा उसका गाल।।
मोह अमल वश संबल बन,
निर्बल मैं भगवान।
विमलनाथ! तुम अमल हो,
संबल दो भगवान।।
14. अनंत गुण पा कर दिया,
अनंत भव का अंत।
‘अनंत’ सार्थक नाम तब,
अनंत जिन जयवंत।।
अनंत सुख पाने सदा,
भव से हो भयवंत।
अंतिम क्षण तक मैं तुम्हें,
स्मरुं स्मरें सब संत।।
15. दयाधर्म वर धर्म है,
अदया भाव अधर्म।
अधर्म तज प्रभु ‘धर्म ने’,
समझाया पुनि धर्म।।
धर्मनाथ को नित नमूं,
सधे शीघ्र शिव शर्म।
धर्म-मर्म को लख सकूँ,
मिटे मलिन मम कर्म।।
16. शांतिनाथ हो शांत कर,
साता साता सांत।
केवल- केवल ज्योतिमय,
क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त।।
सकलज्ञान से सकल को,
जान रहे जगदीश।
विकल रहे जड़ देह से,
विमल नमूं नत-शीश।।
17. ध्यान अग्नि से नष्ट कर,
प्रथम पाप परिताप।
कुंथुनाथ पुरुषार्थ से,
बने न अपने आप।
ऐसी मुझपे हो कृपा,
मम मन मुझमे आय।
जिस विध पल में लवण है,
जल में घुल मिल जाय।।
18. नाम मात्र भी नहीं रखो,
नाम काम से काम।
ललाम आतम में करो,
विराम आठों याम।।
नाम धरो ‘अर’ नाम तव,
अत: स्मरूं अविराम।
अनाम बन शिव धाम में,
काम बनूँ कृत काम।।
19. मोह मल्ल को मारकर,
मल्लिनाथ जिनदेव।
अक्षय बनकर पा लिया,
अक्षय सुख स्वयमेव।।
बाल ब्रह्मचारी विभो,
बाल समान विराग।
किसी वस्तु से राग ना,
मम तव पद से राग।।
20. मुनि बन मुनिपन में निरत,
हो मुनि यति बिन स्वार्थ।
मुनिव्रत का उपदेश दे,
हमको किया कृतार्थ।।
यही भावना मम रही,
मुनिव्रत पाल यथार्थ।
मैं भी ‘मुनिसुव्रत’ बनूँ,
पावन पाय पदार्थ।।
21. अनेकांत का दास हो,
अनेकांत की सेव।
करूँ गहूँ मैं शीघ्र से,
अनेक गुण स्वयमेव।।
अनाथ मैं जगनाथ हो,
नमिनाथ दो साथ।
तव पद में दिन-रात हो,
हाथ जोड़ नत माथ।।
22. नील-गगन में अधर हो,
शोभित निज में लीन।
नील कमल आसीन हो,
नीलम से अति नील।।
शील-झील में तैरते,
नेमि जिनेश सलील।
शील डोर मुझ बांध दो,
डोर करो मत ढील।।
23. खास-दास की आस बस,
श्वास-श्वास पर वास।
पार्श्व! करो मत दास को,
उदासता का दास।।
ना तो सुर सुख चाहता,
शिव सुख की न चाह।
तव थुति सरवर में सदा,
होवे मम अवगाह।।
24. नीर-निधि से धीर हो,
वीर बने गंभीर।
पूर्ण तैरकर पा लिया,
भवसागर का तीर।।
अधीर हो मुझे धीर दो,
सहन करूँ सब पीर।
चीर-चीर कर चिर लखूँ,
अंतर की तस्वीर।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें