।।मल्लिनाथ चालीसा।।
दोहा :-
मल्लिनाथ महाराज का, चालीसा मनहार।
चालीस दिन तुम नियम से, पढ़िये चालीस बार।।
दर्शन को चलते समय, करिये इसका पाठ।
दुख- चिन्ता, बाधा मिटे, उपजै 'सुमत' विचार।।
चौपाई :-
जय श्री मल्लिनाथ जिनराजा,
मिथिला नगरी के महाराजा।
पिता कुम्भ प्रभावित माता,
इक्ष्वाकु कुल जग विख्याता।।
तज कर शादी की तैयारी,
आकर दीक्षा वन में धारी।
अथिर असार समझ जग माया,
राजकुमार त्याग मन भाया।।
ऐसा तुमने ध्यान लगाया,
केवलज्ञान छठें दिन पाया।
ऊँचा पच्चीस धनुष वदन था,
चिह्न कलश का रंग स्वर्ण था।।
दिए उपदेश महान निरन्तर,
समवशरण में अठाईस गणधर।
आयु पचपन सहस्र साल की,
बीती परहित दीनदयाल की।।
करते हुए हितकार हितंकर,
समवशरण आया हस्तिनापुर।
बनी याद में निशियाँ उनकी,
दे शिवधाम वन्दना जिनकी।।
धन्य- धन्य श्री मल्लि जिनेश्वर,
मुक्ति गए सम्मेद शिखर पर।
पहली निशियाँ शान्तिनाथ की,
दूजी निशियाँ कुंथुनाथ की।।
तीजी निशियाँ अरहनाथ की,
चौथी निशियाँ मल्लिनाथ की।
गए जिनको द्रव्य चढ़ावे,
सोलह शुद्ध भावना भावें।।
अजब विशाल है मन्दिर मनहित,
चार जगह प्रतिमा स्थापित।
मानस्तम्भ बने द्वार पर,
बिम्ब विराजे चौमुख जिसपर।।
बीते छह माह करत विहारा,
मिला ठीक तब प्रथम अहारा।
यही दियो श्रेयांस राव ने,
यही लियो रस आदिनाथ ने।।
कष्ट सात सौ मुनि पर आया,
आकर विष्णुकुमार हटाया।
पांडव दो एक भव शिव लीनो,
बाकी चर्म शरीरों तीनो।।
यही द्रौपदी चीर बढ़े थे,
कौरव- पांडव राज किये थे।
मेरठ जिला श्री हस्तिनापुर,
आते-जाते निशदिन मोटर।।
बना गुरुकुल सबसे अच्छा,
सभी तरह की मिलती शिक्षा।
स्वच्छ सदाचारी वो रहकर,
ज्ञानी गुणी बने पढ़- पढ़कर।।
होती रहती शास्त्र सभाएँ,
जाती रहती मन शंकाएँ।
ब्रह्मचारी त्यागी गृहस्थी जन,
करें करायें आत्म चिंतवन।।
उत्तम छह हो धर्मशालायें,
नर- नारी रहकर सुख पायें।
बिजली लगे नल जल के,
सुन्दर पौधे मीठे फल के।।
करें प्रबन्ध मंत्रीजी मैनेजर,
पढ़े अधिक छवि महोत्सवों पर।।
जेठ व कार्तिक निर्वाण के,
लड्डू चढ़ते शान्तिवीर के।।
आये हज़ारो बहना- भाई,
आते जब दिन पर्व अठाई।
मेला हो कार्तिक में भारी,
चीज़ मिले बाजार में सारी।।
लाता सुमत सदा से पुस्तक,
सर्वोपयोगी धर्म प्रचारक।
दर्शन पूजन भजन आरती,
कर- कर होते मुद्रित यात्री।।
परिग्रह त्याग त्याग मन भरते,
गुण अपने अवलोकन करते।
मानव धर्म मिला उपयोगी,
मत करना ये विषयन भोगी।।
तरुषायी मत व्यर्थ लुटाना,
वृद्धावस्था मत दुख उठाना।
उत्तमोत्तम ये भरी जवानी,
निश्चय यही सकल लसानी।
करना मत अपनी मनमानी,
अच्छी इच्छायें मन में लानी।
रत्नत्रय दश धर्म सुहाना,
धर्म- कर्म नित सुमत निभाना।।
दोहा :-
मल्लिनाथ महाराज का, चालीसा मनहार।
चालीस दिन तुम नियम से, पढ़िये चालीस बार।।
दर्शन को चलते समय, करिये इसका पाठ।
दुख- चिन्ता, बाधा मिटे, उपजै 'सुमत' विचार।।
चौपाई :-
जय श्री मल्लिनाथ जिनराजा,
मिथिला नगरी के महाराजा।
पिता कुम्भ प्रभावित माता,
इक्ष्वाकु कुल जग विख्याता।।
तज कर शादी की तैयारी,
आकर दीक्षा वन में धारी।
अथिर असार समझ जग माया,
राजकुमार त्याग मन भाया।।
ऐसा तुमने ध्यान लगाया,
केवलज्ञान छठें दिन पाया।
ऊँचा पच्चीस धनुष वदन था,
चिह्न कलश का रंग स्वर्ण था।।
दिए उपदेश महान निरन्तर,
समवशरण में अठाईस गणधर।
आयु पचपन सहस्र साल की,
बीती परहित दीनदयाल की।।
करते हुए हितकार हितंकर,
समवशरण आया हस्तिनापुर।
बनी याद में निशियाँ उनकी,
दे शिवधाम वन्दना जिनकी।।
धन्य- धन्य श्री मल्लि जिनेश्वर,
मुक्ति गए सम्मेद शिखर पर।
पहली निशियाँ शान्तिनाथ की,
दूजी निशियाँ कुंथुनाथ की।।
तीजी निशियाँ अरहनाथ की,
चौथी निशियाँ मल्लिनाथ की।
गए जिनको द्रव्य चढ़ावे,
सोलह शुद्ध भावना भावें।।
अजब विशाल है मन्दिर मनहित,
चार जगह प्रतिमा स्थापित।
मानस्तम्भ बने द्वार पर,
बिम्ब विराजे चौमुख जिसपर।।
बीते छह माह करत विहारा,
मिला ठीक तब प्रथम अहारा।
यही दियो श्रेयांस राव ने,
यही लियो रस आदिनाथ ने।।
कष्ट सात सौ मुनि पर आया,
आकर विष्णुकुमार हटाया।
पांडव दो एक भव शिव लीनो,
बाकी चर्म शरीरों तीनो।।
यही द्रौपदी चीर बढ़े थे,
कौरव- पांडव राज किये थे।
मेरठ जिला श्री हस्तिनापुर,
आते-जाते निशदिन मोटर।।
बना गुरुकुल सबसे अच्छा,
सभी तरह की मिलती शिक्षा।
स्वच्छ सदाचारी वो रहकर,
ज्ञानी गुणी बने पढ़- पढ़कर।।
होती रहती शास्त्र सभाएँ,
जाती रहती मन शंकाएँ।
ब्रह्मचारी त्यागी गृहस्थी जन,
करें करायें आत्म चिंतवन।।
उत्तम छह हो धर्मशालायें,
नर- नारी रहकर सुख पायें।
बिजली लगे नल जल के,
सुन्दर पौधे मीठे फल के।।
करें प्रबन्ध मंत्रीजी मैनेजर,
पढ़े अधिक छवि महोत्सवों पर।।
जेठ व कार्तिक निर्वाण के,
लड्डू चढ़ते शान्तिवीर के।।
आये हज़ारो बहना- भाई,
आते जब दिन पर्व अठाई।
मेला हो कार्तिक में भारी,
चीज़ मिले बाजार में सारी।।
लाता सुमत सदा से पुस्तक,
सर्वोपयोगी धर्म प्रचारक।
दर्शन पूजन भजन आरती,
कर- कर होते मुद्रित यात्री।।
परिग्रह त्याग त्याग मन भरते,
गुण अपने अवलोकन करते।
मानव धर्म मिला उपयोगी,
मत करना ये विषयन भोगी।।
तरुषायी मत व्यर्थ लुटाना,
वृद्धावस्था मत दुख उठाना।
उत्तमोत्तम ये भरी जवानी,
निश्चय यही सकल लसानी।
करना मत अपनी मनमानी,
अच्छी इच्छायें मन में लानी।
रत्नत्रय दश धर्म सुहाना,
धर्म- कर्म नित सुमत निभाना।।
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