।।श्री पुष्पदन्तनाथ चालीसा।।
दोहा:-
पुष्पदन्त भगवान को, ध्याऊं मन-वच- काय।
हरे चतुर्गति दुःख को, देय सिद्धि सुखदाय।।
चौपाई:-
जय श्री पुष्पदन्त जिन स्वामी,
हो तुम तीन जगत में नामी।
हो चिद्रूप चिदानन्द प्यारे,
तीन लोक त्रयकाल तुम्हारे।।
सुगुण छियालीस के भंडारी,
और अनन्त गुणों के धारी।
मूर्ति आपकी है अतिसुन्दर,
हरदम दृष्टि रहे नासा पर।।
अपराजित विमान के चयकर,
आये आप गुणों के सागर।
पन्द्रह मास रतन बरसे थे,
नर- नारी सब ही हरषे थे।।
सोलह स्वप्ने माता देखे,
पिछले पहर मनोहर पेखे।
काकन्दी नगरी सुखकारी,
प्रभु तुम हुए वहाँ अवतारी।।
जब प्रभुजी की जन्म घड़ी थी,
नरकों में शांति पड़ी थी।
श्री सुग्रीव है पिता तुम्हारे,
रामा की आँखों के तारे।।
पूज्य पिता फूले न समाय,
याचक को बहुदान लुटाय।
देवों ने सुर गिरी ले जाकर,
नव्हन किया बहु भक्ति बढ़ाकर।।
सुरपति सहस नयन धरि देखे,
तो भी तृप्त मन नही लेखे।
आयु मिली दो लाख पूर्व की,
पर विषय में नही पूर्ण की।।
उल्कापात देख कर स्वामी,
झट वैराग्य हुआ जगनामी।
जग के भोग रोग सम जाने,
ममता तज समता में आने।।
लौकांतिक देवों ने आकर,
की स्तुति निज शीश नवाकर।
सारे राज- पाट को तज के,
तप करने को वन में पहुँचे।।
सहस नृपति प्रभु आप संग थे,
तप धारण कर आत्ममग्न थे।
अगहन सुदी की पड़वा भारी,
तुमने मुनिपद दीक्षा धारी।।
नमः सिद्ध कह मुनिव्रत लीन्हा,
पंचमुष्ठी से लोंच जु कीन्हा।
तप कर केवलज्ञान उपाया,
कार्तिक सुदी दोज कहलाया।।
समवशरण धनपति ने कीन्हा,
योजन आठ प्रमाणित चीन्हा।
अठ्ठासी गणधर कहलाये,
केवलज्ञान महानिधि पाये।।
तीन छत्र सिर ऊपर सोहे,
भामण्डल पीछे मन मोहे।
धर्मामृत जिन जग बरसाया,
भविजीवों को बोध कराया।।
फिर सम्मेद शिखर पर आकर,
चार अघाति कर्म नशाकर।
भादव सुदी अष्टमी आयी,
प्रभु ने मोक्ष वहाँ पर पायी।।
तीनलोक के नाथ कहाय,
अविनाशी शिवसुख को पाय।
प्रतिमा श्वेत वर्ण मन भावे,
देखत पाप तिमिर नश जावे।।
चिह्न मगर युत छवि अतिसोहे,
सुर नर असुर नयन मन मोहे।
प्रभु को वीतराग छवि लखकर,
राग- द्वेष सब होय विनश्वर।।
अतिशय पुष्पदन्त का भारी,
आकर देखे सब नर- नारी।
दर्शन से अब भय भग जाते,
रोग मरी संकट टल जाते।।
तुम प्रभु रक्षा सबकी करते,
जग जन की सब पीड़ा हरते।
दीन दुःखी असमर्थ दरिद्री,
विघ्न नशत सुख होय समृद्धि।।
भक्ति भाव से जो नित ध्यावें,
वह प्राणी दुर्गति नही पावें।
जाप जपे जो सन्मुख जाई,
शांति प्राप्त कर आत्म लखाई।।
कृपासिन्धु से कुछ नही चाहूँ,
रत्नत्रय धारण कर पाऊँ।
'मनो' भावना पूरी स्वामी,
मोक्ष रमा पाऊँ शिवगामी।।
दोहा:-
किस विधि गुण वर्णन करूँ, पुष्पदन्त भगवान।
महामोक्ष फल दीजिये, यही अरज गुणखान।।
दोहा:-
पुष्पदन्त भगवान को, ध्याऊं मन-वच- काय।
हरे चतुर्गति दुःख को, देय सिद्धि सुखदाय।।
चौपाई:-
जय श्री पुष्पदन्त जिन स्वामी,
हो तुम तीन जगत में नामी।
हो चिद्रूप चिदानन्द प्यारे,
तीन लोक त्रयकाल तुम्हारे।।
सुगुण छियालीस के भंडारी,
और अनन्त गुणों के धारी।
मूर्ति आपकी है अतिसुन्दर,
हरदम दृष्टि रहे नासा पर।।
अपराजित विमान के चयकर,
आये आप गुणों के सागर।
पन्द्रह मास रतन बरसे थे,
नर- नारी सब ही हरषे थे।।
सोलह स्वप्ने माता देखे,
पिछले पहर मनोहर पेखे।
काकन्दी नगरी सुखकारी,
प्रभु तुम हुए वहाँ अवतारी।।
जब प्रभुजी की जन्म घड़ी थी,
नरकों में शांति पड़ी थी।
श्री सुग्रीव है पिता तुम्हारे,
रामा की आँखों के तारे।।
पूज्य पिता फूले न समाय,
याचक को बहुदान लुटाय।
देवों ने सुर गिरी ले जाकर,
नव्हन किया बहु भक्ति बढ़ाकर।।
सुरपति सहस नयन धरि देखे,
तो भी तृप्त मन नही लेखे।
आयु मिली दो लाख पूर्व की,
पर विषय में नही पूर्ण की।।
उल्कापात देख कर स्वामी,
झट वैराग्य हुआ जगनामी।
जग के भोग रोग सम जाने,
ममता तज समता में आने।।
लौकांतिक देवों ने आकर,
की स्तुति निज शीश नवाकर।
सारे राज- पाट को तज के,
तप करने को वन में पहुँचे।।
सहस नृपति प्रभु आप संग थे,
तप धारण कर आत्ममग्न थे।
अगहन सुदी की पड़वा भारी,
तुमने मुनिपद दीक्षा धारी।।
नमः सिद्ध कह मुनिव्रत लीन्हा,
पंचमुष्ठी से लोंच जु कीन्हा।
तप कर केवलज्ञान उपाया,
कार्तिक सुदी दोज कहलाया।।
समवशरण धनपति ने कीन्हा,
योजन आठ प्रमाणित चीन्हा।
अठ्ठासी गणधर कहलाये,
केवलज्ञान महानिधि पाये।।
तीन छत्र सिर ऊपर सोहे,
भामण्डल पीछे मन मोहे।
धर्मामृत जिन जग बरसाया,
भविजीवों को बोध कराया।।
फिर सम्मेद शिखर पर आकर,
चार अघाति कर्म नशाकर।
भादव सुदी अष्टमी आयी,
प्रभु ने मोक्ष वहाँ पर पायी।।
तीनलोक के नाथ कहाय,
अविनाशी शिवसुख को पाय।
प्रतिमा श्वेत वर्ण मन भावे,
देखत पाप तिमिर नश जावे।।
चिह्न मगर युत छवि अतिसोहे,
सुर नर असुर नयन मन मोहे।
प्रभु को वीतराग छवि लखकर,
राग- द्वेष सब होय विनश्वर।।
अतिशय पुष्पदन्त का भारी,
आकर देखे सब नर- नारी।
दर्शन से अब भय भग जाते,
रोग मरी संकट टल जाते।।
तुम प्रभु रक्षा सबकी करते,
जग जन की सब पीड़ा हरते।
दीन दुःखी असमर्थ दरिद्री,
विघ्न नशत सुख होय समृद्धि।।
भक्ति भाव से जो नित ध्यावें,
वह प्राणी दुर्गति नही पावें।
जाप जपे जो सन्मुख जाई,
शांति प्राप्त कर आत्म लखाई।।
कृपासिन्धु से कुछ नही चाहूँ,
रत्नत्रय धारण कर पाऊँ।
'मनो' भावना पूरी स्वामी,
मोक्ष रमा पाऊँ शिवगामी।।
दोहा:-
किस विधि गुण वर्णन करूँ, पुष्पदन्त भगवान।
महामोक्ष फल दीजिये, यही अरज गुणखान।।
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