बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

               ।।श्री पुष्पदन्तनाथ आरती।।

ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी, प्रभु जय पुष्पदन्त स्वामी।
आरती तुमरी उतारूँ, हो अन्तर्यामी।।
                        ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी... 2

जयरामा है मात आपकी, पितु सुग्रीव कहाय।
क्षत्रिय कुल इक्ष्वाकु वंश में, काश्यप गोत्र सुहाय।।
                                ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

काकन्दी नगरी में जन्में, वैभव था भारी।
राज्य त्याग कर सहस्त्र नृपति संग, मुनि दीक्षा धारी।।
                              ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

उल्कापात देख कर प्रभु ने, अथिर लखा संसार।
भये दिगम्बर करि तपस्या, राग- द्वेष को टार।।
                                ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

श्री सम्मेद शिखर से प्रभु जी, आप गए निर्वाण।
भादव सुदी अष्टमी के दिन, पाया मोक्ष महान।।
                                  ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

सुविधिनाथ भी नाम तुम्हारा, भक्तों के मन भाय।
तिरे आप जग जन को तारा,तारण-तरण कहाय।।
                                  ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

पद्मासन में आप विराजे, नासा दृष्टि सुहाय।
अतिशयकारी अति मनोज्ञ तुम, सौम्य मूर्ति सुखदाय।।
                             ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

सवा लाख जो जाप जपे प्रभु, मनवांच्छित फल पाय।
सेवक शरण तुम्हारी आया, चरणों शीश नवाय।।
                            ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

                     ।।मल्लिनाथ चालीसा।।

दोहा :-
मल्लिनाथ महाराज का, चालीसा मनहार।
चालीस दिन तुम नियम से, पढ़िये चालीस बार।।
दर्शन को चलते समय, करिये इसका पाठ।
दुख- चिन्ता, बाधा मिटे, उपजै 'सुमत' विचार।।

चौपाई :-

जय श्री मल्लिनाथ जिनराजा,
मिथिला नगरी के महाराजा।
पिता कुम्भ प्रभावित माता,
इक्ष्वाकु कुल जग विख्याता।।

तज कर शादी की तैयारी,
आकर दीक्षा वन में धारी।
अथिर असार समझ जग माया,
राजकुमार त्याग मन भाया।।

ऐसा तुमने ध्यान लगाया,
केवलज्ञान छठें दिन पाया।
ऊँचा पच्चीस धनुष वदन था,
चिह्न कलश का रंग स्वर्ण था।।

दिए उपदेश महान निरन्तर,
समवशरण में अठाईस गणधर।
आयु पचपन सहस्र साल की,
बीती परहित दीनदयाल की।।

करते हुए हितकार हितंकर,
समवशरण आया हस्तिनापुर।
बनी याद में निशियाँ उनकी,
दे शिवधाम वन्दना जिनकी।।

धन्य- धन्य श्री मल्लि जिनेश्वर,
मुक्ति गए सम्मेद शिखर पर।
पहली निशियाँ शान्तिनाथ की,
दूजी निशियाँ कुंथुनाथ की।।

तीजी निशियाँ अरहनाथ की,
चौथी निशियाँ मल्लिनाथ की।
गए जिनको द्रव्य चढ़ावे,
सोलह शुद्ध भावना भावें।।

अजब विशाल है मन्दिर मनहित,
चार जगह प्रतिमा स्थापित।
मानस्तम्भ बने द्वार पर,
बिम्ब विराजे चौमुख जिसपर।।

बीते छह माह करत विहारा,
मिला ठीक तब प्रथम अहारा।
यही दियो श्रेयांस राव ने,
यही लियो रस आदिनाथ ने।।

कष्ट सात सौ मुनि पर आया,
आकर विष्णुकुमार हटाया।
पांडव दो एक भव शिव लीनो,
बाकी चर्म शरीरों तीनो।।

यही द्रौपदी चीर बढ़े थे,
कौरव- पांडव राज किये थे।
मेरठ जिला श्री हस्तिनापुर,
आते-जाते निशदिन मोटर।।

बना गुरुकुल सबसे अच्छा,
सभी तरह की मिलती शिक्षा।
स्वच्छ सदाचारी वो रहकर,
ज्ञानी गुणी बने पढ़- पढ़कर।।

होती रहती शास्त्र सभाएँ,
जाती रहती मन शंकाएँ।
ब्रह्मचारी त्यागी गृहस्थी जन,
करें करायें आत्म चिंतवन।।

उत्तम छह हो धर्मशालायें,
नर- नारी रहकर सुख पायें।
बिजली लगे नल जल के,
सुन्दर पौधे मीठे फल के।।

करें प्रबन्ध मंत्रीजी मैनेजर,
पढ़े अधिक छवि महोत्सवों पर।।
जेठ व कार्तिक निर्वाण के,
लड्डू चढ़ते शान्तिवीर के।।

आये हज़ारो बहना- भाई,
आते जब दिन पर्व अठाई।
मेला हो कार्तिक में भारी,
चीज़ मिले बाजार में सारी।।

लाता सुमत सदा से पुस्तक,
सर्वोपयोगी धर्म प्रचारक।
दर्शन पूजन भजन आरती,
कर- कर होते मुद्रित यात्री।।

परिग्रह त्याग त्याग मन भरते,
गुण अपने अवलोकन करते।
मानव धर्म मिला उपयोगी,
मत करना ये विषयन भोगी।।

तरुषायी मत व्यर्थ लुटाना,
वृद्धावस्था मत दुख उठाना।
उत्तमोत्तम ये भरी जवानी,
निश्चय यही सकल लसानी।

करना मत अपनी मनमानी,
अच्छी इच्छायें मन में लानी।
रत्नत्रय दश धर्म सुहाना,
धर्म- कर्म नित सुमत निभाना।।

रविवार, 11 फ़रवरी 2018

                ।।श्री पुष्पदन्तनाथ चालीसा।।

दोहा:-
पुष्पदन्त भगवान को, ध्याऊं मन-वच- काय।
हरे चतुर्गति दुःख को, देय सिद्धि सुखदाय।।

चौपाई:-
जय श्री पुष्पदन्त जिन स्वामी,
हो तुम तीन जगत में नामी।
हो चिद्रूप चिदानन्द प्यारे,
तीन लोक त्रयकाल तुम्हारे।।

सुगुण छियालीस के भंडारी,
और अनन्त गुणों के धारी।
मूर्ति आपकी है अतिसुन्दर,
हरदम दृष्टि रहे नासा पर।।

अपराजित विमान के चयकर,
आये आप गुणों के सागर।
पन्द्रह मास रतन बरसे थे,
नर- नारी सब ही हरषे थे।।

सोलह स्वप्ने माता देखे,
पिछले पहर मनोहर पेखे।
काकन्दी नगरी सुखकारी,
प्रभु तुम हुए वहाँ अवतारी।।

जब प्रभुजी की जन्म घड़ी थी,
नरकों में शांति पड़ी थी।
श्री सुग्रीव है पिता तुम्हारे,
रामा की आँखों के तारे।।

पूज्य पिता फूले न समाय,
याचक को बहुदान लुटाय।
देवों ने सुर गिरी ले जाकर,
नव्हन किया बहु भक्ति बढ़ाकर।।

सुरपति सहस नयन धरि देखे,
तो भी तृप्त मन नही लेखे।
आयु मिली दो लाख पूर्व की,
पर विषय में नही पूर्ण की।।

उल्कापात देख कर स्वामी,
झट वैराग्य हुआ जगनामी।
जग के भोग रोग सम जाने,
ममता तज समता में आने।।

लौकांतिक देवों ने आकर,
की स्तुति निज शीश नवाकर।
सारे राज- पाट को तज के,
तप करने को वन में पहुँचे।।

सहस नृपति प्रभु आप संग थे,
तप धारण कर आत्ममग्न थे।
अगहन सुदी की पड़वा भारी,
तुमने मुनिपद दीक्षा धारी।।

नमः सिद्ध कह मुनिव्रत लीन्हा,
पंचमुष्ठी से लोंच जु कीन्हा।
तप कर केवलज्ञान उपाया,
कार्तिक सुदी दोज कहलाया।।

समवशरण धनपति ने कीन्हा,
योजन आठ प्रमाणित चीन्हा।
अठ्ठासी गणधर कहलाये,
केवलज्ञान महानिधि पाये।।

तीन छत्र सिर ऊपर सोहे,
भामण्डल पीछे मन मोहे।
धर्मामृत जिन जग बरसाया,
भविजीवों को बोध कराया।।

फिर सम्मेद शिखर पर आकर,
चार अघाति कर्म नशाकर।
भादव सुदी अष्टमी आयी,
प्रभु ने मोक्ष वहाँ पर पायी।।

तीनलोक के नाथ कहाय,
अविनाशी शिवसुख को पाय।
प्रतिमा श्वेत वर्ण मन भावे,
देखत पाप तिमिर नश जावे।।

चिह्न मगर युत छवि अतिसोहे,
सुर नर असुर नयन मन मोहे।
प्रभु को वीतराग छवि लखकर,
राग- द्वेष सब होय विनश्वर।।

अतिशय पुष्पदन्त का भारी,
आकर देखे सब नर- नारी।
दर्शन से अब भय भग जाते,
रोग मरी संकट टल जाते।।

तुम प्रभु रक्षा सबकी करते,
जग जन की सब पीड़ा हरते।
दीन दुःखी असमर्थ दरिद्री,
विघ्न नशत सुख होय समृद्धि।।

भक्ति भाव से जो नित ध्यावें,
वह प्राणी दुर्गति नही पावें।
जाप जपे जो सन्मुख जाई,
शांति प्राप्त कर आत्म लखाई।।

कृपासिन्धु से कुछ नही चाहूँ,
रत्नत्रय धारण कर पाऊँ।
'मनो' भावना पूरी स्वामी,
मोक्ष रमा पाऊँ शिवगामी।।

दोहा:-
किस विधि गुण वर्णन करूँ, पुष्पदन्त भगवान।
महामोक्ष फल दीजिये, यही अरज गुणखान।।

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

                ।।श्री चन्द्रप्रभ चालीसा।।

दोहा:-
वीतराग सर्वज्ञ जिन, जिन वाणी को ध्याय ।
लिखने का साहस करुं, चालीसा सिर नाय।।
देहरे के श्रीचन्द्र को, पूजौं मन वच काय।
ऋद्धि सिद्धि मंगल करें, विघ्न दूर हो जाय।।

चौपाई:-
जय श्रीचन्द्र दया के सागर, देहरे वाले ज्ञान उजागर।
शांति छवि मूरति अति प्यारी,भेष दिगम्बर धारा भारी।।
नासा पर है दृष्टि तुम्हारी, मोहनी मूरति कितनी प्यारी।
देवों के तुम देव कहावो, कष्ट भक्त के दूर हटावो।।
समन्तभद्र मुनिवर ने ध्याया, पिंडी फटी दर्श तुम पाया।
तुम जग में सर्वज्ञ कहावो, अष्टम तीर्थंकर कहलावो।।
महासेन के राजदुलारे, मात सुलक्षणा के हो प्यारे।
चन्द्रपुरी नगरी अति नामी, जन्म लिया चन्द्र-प्रभ स्वामी।।
पौष वदी ग्यारस को जन्मे, नर नारी हरषे तब मन में।
काम क्रोध तृष्णा दुखकारी, त्याग सुखद मुनि दीक्षा धारी।।
फाल्गुन वदी सप्तमी भाई, केवल ज्ञान हुआ सुखदाई।
फिर सम्मेद शिखर पर जाके, मोक्ष गये प्रभु आप वहां से।।
लोभ मोह और छोड़ी माया, तुमने मान कषाय नसाया।
रागी नहीं, नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित उपदेशी।।
पंचम काल महा दुखदाई, धर्म कर्म भूले सब भाई।
अलवर प्रान्त में नगर तिजारा, होय जहां पर दर्शन प्यारा।।
उत्तर दिशि में देहरा माहीं, वहां आकर प्रभुता प्रगटाई।
सावन सुदि दशमि शुभ नामी, प्रकट भये त्रिभुवन के स्वामी।।
चिह्न चन्द्र का लख नर नारी, चंद्रप्रभु की मूरती मानी।
मूर्ति आपकी अति उजयाली, लगता हीरा भी है जाली।।
अतिशय चन्द्र प्रभु का भारी, सुनकर आते यात्री भारी।
फाल्गुन सुदी सप्तमी प्यारी, जुड़ता है मेला यहां भारी।।
कहलाने को तो शशि धर हो, तेज पुंज रवि से बढ़कर हो।
नाम तुम्हारा जग में सांचा, ध्यावत भागत भूत पिशाचा।।
राक्षस भूत प्रेत सब भागें, तुम सुमिरत भय कभी न लागे।
कीर्ति तुम्हारी है अति भारी, गुण गाते नित नर और नारी।।
जिस पर होती कृपा तुम्हारी, संकट झट कटता ही भारी।
जो भी जैसी आश लगाता, पूरी उसे तुरत कर पाता।।
दुखिया दर पर जो आते हैं, संकट सब खो कर जाते हैं।
खुला सभी हित प्रभु द्वार है, चमत्कार को नमस्कार है।।
अन्धा भी यदि ध्यान लगावे, उसके नेत्र शीघ्र खुल जावें।
बहरा भी सुन लग जावे, पगले का पागलपन जावे।।
अखंड ज्योति का घृत जो लगावे संकट उसका सब कट जावे।
चरणों की रज अति सुखकारी, दुख दरिद्र सब नाशनहारी।।
चालीसा जो मन से ध्यावे, पुत्र पौत्र सब सम्पति पावे।
पार करो दुखियों की नैया, स्वामी तुम बिन नहीं खिवैया।।
प्रभु मैं तुम से कुछ नहिं चाहूं, दर्श तिहारा निश दिन पाऊँ।

दोहा:-
करुं वन्दना आपकी, श्री चन्द्रप्रभु जिनराज।
जंगल में मंगल कियो, रखो हमारी लाज।।

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन को, करुं प्रणाम |उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ||सर्व साधु और सरस्वती जिन मन्दिर सुखकार |आदिनाथ भगवान को मन मन्दिर में धार ||
-: चौपाई :-
जै जै आदिनाथ जिन स्वामी, तीनकाल तिहूं जग में नामी |
वेष दिगम्बर धार रहे हो, कर्मों को तुम मार रहे हो ||
हो सर्वज्ञ बात सब जानो सारी दुनियां को पहचानो |
नगर अयोध्या जो कहलाये, राजा नाभिराज बतलाये ||
मरुदेवी माता के उदर से, चैत वदी नवमी को जन्मे |
तुमने जग को ज्ञान सिखाया, कर्मभूमी का बीज उपाया ||
कल्पवृक्ष जब लगे बिछरने, जनता आई दुखड़ा कहने |
सब का संशय तभी भगाया, सूर्य चन्द्र का ज्ञान कराया ||
खेती करना भी सिखलाया, न्याय दण्ड आदिक समझाया |
तुमने राज किया नीति का, सबक आपसे जग ने सीखा ||
पुत्र आपका भरत बताया, चक्रवर्ती जग में कहलाया |
बाहुबली जो पुत्र तुम्हारे, भरत से पहले मोक्ष सिधारे ||
सुता आपकी दो बतलाई, ब्राह्मी और सुन्दरी कहलाई |
उनको भी विद्या सिखलाई, अक्षर और गिनती बतलाई ||
एक दिन राजसभा के अन्दर, एक अप्सरा नाच रही थी |
आयु उसकी बहुत अल्प थी, इसीलिए आगे नहीं नाच रही थी ||
विलय हो गया उसका सत्वर, झट आया वैराग्य उमड़कर |
बेटों को झट पास बुलाया, राज पाट सब में बंटवाया ||
छोड़ सभी झंझट संसारी, वन जाने की करी तैयारी |
राव (राजा) हजारों साथ सिधाए, राजपाट तज वन को धाये ||
लेकिन जब तुमने तप किना, सबने अपना रस्ता लीना |
वेष दिगम्बर तजकर सबने, छाल आदि के कपड़े पहने ||
भूख प्यास से जब घबराये, फल आदिक खा भूख मिटाये |
तीन सौ त्रेसठ धर्म फैलाये, जो अब दुनियां में दिखलाये ||
छैः महीने तक ध्यान लगाये, फिर भोजन करने को धाये |
भोजन विधि जाने नहिं कोय, कैसे प्रभु का भोजन होय ||
इसी तरह बस चलते चलते, छः महीने भोजन बिन बीते |
नगर हस्तिनापुर में आये, राजा सोम श्रेयांस बताए ||
याद तभी पिछला भव आया, तुमको फौरन ही पड़धाया |
रस गन्ने का तुमने पाया, दुनिया को उपदेश सुनाया ||
तप कर केवल ज्ञान पाया, मोक्ष गए सब जग हर्षाया |
अतिशय युक्त तुम्हारा मन्दिर, चांदखेड़ी भंवरे के अन्दर ||
उसका यह अतिशय बतलाया, कष्ट क्लेश का होय सफाया |
मानतुंग पर दया दिखाई, जंजीरें सब काट गिराई ||
राजसभा में मान बढ़ाया, जैन धर्म जग में फैलाया |
मुझ पर भी महिमा दिखलाओ, कष्ट भक्त का दूर भगाओ ||
सोरठाः-
पाठ करे चालीस दिन, नित चालीस ही बार |
चांदखेड़ी में आय के, खेवे धूप अपार ||
जन्म दरिद्री होय जो, ; होय कुबेर समान |
नाम वंश जग में चले, जिनके नहीं सन्तान ||

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

            ।।स्वयंभू स्तोत्र।।

1. आदिम तीर्थंकर प्रभो!
आदिनाथ मुनिनाथ।
आधि-व्याधि अघ मद मिटे,
तुम पद में मम माथ।।
शरण चरण हैं आपके,
तारण तरन जिहाज।
भव दधि तट तक ले चलो,
करुणा कर जिनराज।।

2. जित इन्द्रिय जित मद बने,
जित भव विजित कषाय।
अजितनाथ को नित नमूं,
अर्जित दुरित पलाय।।
कोंपल पल-पल को पले,
वन में ऋतु पति आय।
पुलकित मम जीवन लता,
मन में जिन पद पाय।।

3. तुम पद पंकज से प्रभु,
झर-झर झरी पराग।
जब तक शिव सुख ना मिले,
पीऊँ षट्पद जाग।।
भव-भव भव-वन भ्रमित हो,
भ्रमता-भ्रमता आज।
संभव जिन भव शिव मिले,
पूरण हुआ मम काज।।

4. विषयों को विष लख तजूं,
बनकर विषयातीत।
विषय बना ऋषि ईश को,
गाऊं उनका गीत।।
गुण धारे पर मद नहीं,
मृदुतम हो नवनीत।
अभिनन्दन जिन ! नित नमूं,
मुनि बन में भवभीत।।

5. सुमतिनाथ प्रभु ! सुमति हो,
मम मति है अति मंद।
बोध कली खुल-खिल उठे,
महक उठे मकरंद।।
तुम जिन मेघ मयूर मैं,
गरजो-बरसो नाथ।
चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा,
ऊपर करके माथ।।

6. शुभ्र सरल तुम बाल तब,
कुटिल कृष्ण तब नाग।
तब चिति चित्रित ज्ञेय से,
किन्तु न उसमें दाग।।
विराग पद्मप्रभु आपके ,
दोनों पाद सरग।
रागी मम मन जा वहीं,
पीता तभी पराग।।

7. अबंध भाते काटके,
वसु विध विधि का बंध।
सुपार्श्व प्रभु निज प्रभुपना,
पा पाए आनंद।।
बांध-बांध विधि बंध मैं,
अंध बना मति मंद।
ऐसा बल दो अंध को,
बंधन तोडूं द्वंद्व।।

8. चन्द्र कलंकित किन्तु हो,
चन्द्रप्रभु अकलंक।
वह तो शंकित केतु से,
शंकर तुम निःशंक।।
रंक बना हूँ मम अत:,
मेटो मन का पंक।
जाप जपूँ जिननाम का,
बैठ सदा पर्यंक।।

9. सुविधि! सुविधि के पूर हो,
विधि से हो अति दूर।
मम मन से मत दूर हो,
विनती हो मंजूर।।
बाल मात्र भी ज्ञान ना,
मुझमें मैं मुनि बाल।
बवाल भव का मम मिटे,
प्रभु पद में मम भाल।।

10. शीतल चन्दन है नहीं,
शीतल हिम ना नीर।
शीतल जिन तब मत रहा,
शीतल हरता पीर।।
सुचिर काल से मैं रहा,
मोह नींद से सुप्त।
मुझे जगाकर कर कृपा,
प्रभो करो परितृप्त।।

11. अनेकांत की कांति से,
हटा तिमिर एकांत।
नितांत हर्षित कर दिया,
क्लांत विश्व को शांत।।
नि:श्रेयस् सुख धाम हो,
हे जिनवर! श्रेयांस।
तव थुति अविरल मैं करूँ,
जब लों घट में श्वाँस।।

12. वसु-विध मंगल-द्रव्य ले,
जिन पूजों सागार।
पाप घटे फलत: फले,
पावन पुण्य अपार।।
बिना द्रव्य शुचि भाव से,
जिन पूजों मुनि लोग।
बिन निज शुभ उपयोग के,
शुद्ध न हो उपयोग।।

13. कराल काला व्याल सम,
कुटिल चाल का काल।
मार दिया तुमने उसे,
फाड़ा उसका गाल।।
मोह अमल वश संबल बन,
निर्बल मैं भगवान।
विमलनाथ! तुम अमल हो,
संबल दो भगवान।।

14. अनंत गुण पा कर दिया,
अनंत भव का अंत।
‘अनंत’ सार्थक नाम तब,
अनंत जिन जयवंत।।
अनंत सुख पाने सदा,
भव से हो भयवंत।
अंतिम क्षण तक मैं तुम्हें,
स्मरुं स्मरें सब संत।।

15. दयाधर्म वर धर्म है,
अदया भाव अधर्म।
अधर्म तज प्रभु  ‘धर्म ने’,
समझाया पुनि धर्म।।
धर्मनाथ को नित नमूं,
सधे शीघ्र शिव शर्म।
धर्म-मर्म को लख सकूँ,
मिटे मलिन मम कर्म।।

16. शांतिनाथ हो शांत कर,
साता साता सांत।
केवल- केवल ज्योतिमय,
क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त।।
सकलज्ञान से सकल को,
जान रहे जगदीश।
विकल रहे जड़ देह से,
विमल नमूं नत-शीश।।

17. ध्यान अग्नि से नष्ट कर,
प्रथम पाप परिताप।
कुंथुनाथ पुरुषार्थ से,
बने न अपने आप।
ऐसी मुझपे हो कृपा,
मम मन मुझमे आय।
जिस विध पल में लवण है,
जल में घुल मिल जाय।।

18. नाम मात्र भी नहीं रखो,
नाम काम से काम।
ललाम आतम में करो,
विराम आठों याम।।
नाम धरो ‘अर’ नाम तव,
अत: स्मरूं अविराम।
अनाम बन शिव धाम में,
काम बनूँ कृत काम।।

19. मोह मल्ल को मारकर,
मल्लिनाथ जिनदेव।
अक्षय बनकर पा लिया,
अक्षय सुख स्वयमेव।।
बाल ब्रह्मचारी विभो,
बाल समान विराग।
किसी वस्तु से राग ना,
मम तव पद से राग।।

20. मुनि बन मुनिपन में निरत,
हो मुनि यति बिन स्वार्थ।
मुनिव्रत का उपदेश दे,
हमको किया कृतार्थ।।
यही भावना मम रही,
मुनिव्रत पाल यथार्थ।
मैं भी ‘मुनिसुव्रत’ बनूँ,
पावन पाय पदार्थ।।

21. अनेकांत का दास हो,
अनेकांत की सेव।
करूँ गहूँ मैं शीघ्र से,
अनेक गुण स्वयमेव।।
अनाथ मैं जगनाथ हो,
नमिनाथ दो साथ।
तव पद में दिन-रात हो,
हाथ जोड़ नत माथ।।

22. नील-गगन में अधर हो,
शोभित निज में लीन।
नील कमल आसीन हो,
नीलम से अति नील।।
शील-झील में तैरते,
नेमि जिनेश सलील।
शील डोर मुझ बांध दो,
डोर करो मत ढील।।

23. खास-दास की आस बस,
श्वास-श्वास पर वास।
पार्श्व! करो मत दास को,
उदासता का दास।।
ना तो सुर सुख चाहता,
शिव सुख की न चाह।
तव थुति सरवर में सदा,
होवे मम अवगाह।।

24. नीर-निधि से धीर हो,
वीर बने गंभीर।
पूर्ण तैरकर पा लिया,
भवसागर का तीर।।
अधीर हो मुझे धीर दो,
सहन करूँ सब पीर।
चीर-चीर कर चिर लखूँ,
अंतर की तस्वीर।।

विशिष्ट पोस्ट

बीसवें तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ जी परिचय

बीसवें तीर्थंकर- श्री मुनिसुव्रतनाथ जी चिह्न- कछुआ उत्पन्न काल- 54 लाख 43 हज़ार 400 वर्ष पश्चात कछुआ चिह्न से युक्त जैन धर्म के 20वें तीर्थंक...