।।श्री अरहनाथ चालीसा।।
दोहा:-
पाँचों ही परमेष्ठी को, वन्दन बारम्बार।
जिनवाणी का ज्ञान ही, जीवन का आधार।।
श्री 'अरह' प्रभु की वन्दना, काटे कर्म क्लेश।
चालीसा पढ़कर मिले, सच्चा आतम भेष।।
चौपाई:-
सिद्धो की श्रेणी में रहते,
सिद्ध प्रभु हम आपको कहते।
आठों कर्मों को नाशा है,
सिद्धालय में ही वासा है।।
भक्तों के आराध्य आप हो,
भक्तों के भी साध्य आप हो।
साधन है 'अरह' नाम तुम्हारा,
मुक्ति का मिल जाये किनारा।।
नम्रीभूत जगत है सारा,
वन्दन करता बारम्बारा।
सोमवंश में जन्म है पाया,
मित्रसेना को माँ बतलाया।।
पिता सुदर्शन सम्यग्दृष्टि,
महल में होती रत्न की वृष्टि।
सोलह शुभ सपने लख माँ ने,
तीर्थंकर के जन्म को पाने।।
चहुँ दिश निर्मल वायु बहती,
छह ऋतुएँ भी संग- संग रहती।
सब प्राणी के मन खुशहाली,
पूर्व दिशा में आई लाली।।
इन्द्रों संग सुर भू पर आये,
कल्याणक खुशियाँ बरसाये।
लक्ष्मी ने आ डाला डेरा,
सबके दुर्दिन को है फेरा।।
तीर्थंकर की महिमा गाई,
बस 'अर' प्रभु का नाम सहाई।
जब यौवन का मौसम आया,
कन्यायों को फिर परिणाया।।
राज्य पिता ने तुमको दीना,
न्याय से प्रभु ने कार्य को कीना।
चक्ररत्न ने स्वामी माना,
चक्रवर्ती बन विजय को जाना।।
षटखण्ड राजा शरण में आये,
आज्ञा को सिर माथ चढाये।
स्वप्न में भी खुद पास न आता,
जोड़ा फिर आतम से नाता।।
कामदेव पदवी के धारी,
किससे उपमा करें तुम्हारी।
देख सभी मोहित हो जाते,
बात कोई वे सोच न पाते।।
शरद ऋतु के बादल देखे,
फटे हुए थे कारण लेखे।
क्षणभंगुर संसार को जाना,
पहना फिर वैराग्य का बाना।।
कुम्भकार सम चक्र को छोड़ा,
गृहलक्ष्मी से नाता तोड़ा।
दीक्षा ले संयम को धारा,
नश्वर सुख को दिया किनारा।।
पँचमुष्ठी केशलोंच किया था,
आतम निज में लीन किया था।
एक सहज राजा संग आये,
दीक्षा ले संग ध्यान लगाये।।
तप अग्नि में कर्म जलाये,
केवलज्ञान का दीप जलाये।
देवों ने आ पूजा कीनी,
समवशरण रचना कर दीनी।।
भक्तों को स्थान मिला था,
भक्त हृदय भी शीघ्र खिला था।
जिनवरमुद्रा पाठ पढ़ाती,
ज्ञान- ध्यान की याद दिलाती।।
जिस- जिस ने प्रभु नाम लिया था,
उसका बेड़ापार हुआ था।
चार गति से हमें छुड़ाओ,
जग दुखों से हमें बचाओ।।
कर्म-बन्ध ढीले हो जाये,
तब ही प्रभु हम शरण में आये।
सच्चे हृदय से भक्ति करेंगे,
मन से प्रभुजी जाप करेंगे।।
पापकर्म से दूर हटेंगे,
क्रोध मान से दूर रहेंगे।
भक्ति का पथ हमको प्यारा,
क्षणभंगुर सुख इससे हारा।।
ज्ञान किरण हमको दिखला दो,
मुक्ति का रस्ता बतला दो।
ज्ञानामृत का भोजन पाऊँ,
और अमर इससे हो जाऊँ।।
श्री सम्मेद शिखर मन भाया,
वहाँ से मुक्ति को पडराया।
बार- बार मैं अरज करूँगा,
चरण आपके सदा रहूँगा।।
दोहा:-
चालीसा चालीस दिन, पढ़ना है सुखकार।
रिद्धि- सिद्धि मंगल करें, होवें भव से पार।।
श्री 'अर' प्रभु के चरण में, वन्दन शत-शत बार।
सबकी विपदायें हरो, विनती बारम्बार।।
दोहा:-
पाँचों ही परमेष्ठी को, वन्दन बारम्बार।
जिनवाणी का ज्ञान ही, जीवन का आधार।।
श्री 'अरह' प्रभु की वन्दना, काटे कर्म क्लेश।
चालीसा पढ़कर मिले, सच्चा आतम भेष।।
चौपाई:-
सिद्धो की श्रेणी में रहते,
सिद्ध प्रभु हम आपको कहते।
आठों कर्मों को नाशा है,
सिद्धालय में ही वासा है।।
भक्तों के आराध्य आप हो,
भक्तों के भी साध्य आप हो।
साधन है 'अरह' नाम तुम्हारा,
मुक्ति का मिल जाये किनारा।।
नम्रीभूत जगत है सारा,
वन्दन करता बारम्बारा।
सोमवंश में जन्म है पाया,
मित्रसेना को माँ बतलाया।।
पिता सुदर्शन सम्यग्दृष्टि,
महल में होती रत्न की वृष्टि।
सोलह शुभ सपने लख माँ ने,
तीर्थंकर के जन्म को पाने।।
चहुँ दिश निर्मल वायु बहती,
छह ऋतुएँ भी संग- संग रहती।
सब प्राणी के मन खुशहाली,
पूर्व दिशा में आई लाली।।
इन्द्रों संग सुर भू पर आये,
कल्याणक खुशियाँ बरसाये।
लक्ष्मी ने आ डाला डेरा,
सबके दुर्दिन को है फेरा।।
तीर्थंकर की महिमा गाई,
बस 'अर' प्रभु का नाम सहाई।
जब यौवन का मौसम आया,
कन्यायों को फिर परिणाया।।
राज्य पिता ने तुमको दीना,
न्याय से प्रभु ने कार्य को कीना।
चक्ररत्न ने स्वामी माना,
चक्रवर्ती बन विजय को जाना।।
षटखण्ड राजा शरण में आये,
आज्ञा को सिर माथ चढाये।
स्वप्न में भी खुद पास न आता,
जोड़ा फिर आतम से नाता।।
कामदेव पदवी के धारी,
किससे उपमा करें तुम्हारी।
देख सभी मोहित हो जाते,
बात कोई वे सोच न पाते।।
शरद ऋतु के बादल देखे,
फटे हुए थे कारण लेखे।
क्षणभंगुर संसार को जाना,
पहना फिर वैराग्य का बाना।।
कुम्भकार सम चक्र को छोड़ा,
गृहलक्ष्मी से नाता तोड़ा।
दीक्षा ले संयम को धारा,
नश्वर सुख को दिया किनारा।।
पँचमुष्ठी केशलोंच किया था,
आतम निज में लीन किया था।
एक सहज राजा संग आये,
दीक्षा ले संग ध्यान लगाये।।
तप अग्नि में कर्म जलाये,
केवलज्ञान का दीप जलाये।
देवों ने आ पूजा कीनी,
समवशरण रचना कर दीनी।।
भक्तों को स्थान मिला था,
भक्त हृदय भी शीघ्र खिला था।
जिनवरमुद्रा पाठ पढ़ाती,
ज्ञान- ध्यान की याद दिलाती।।
जिस- जिस ने प्रभु नाम लिया था,
उसका बेड़ापार हुआ था।
चार गति से हमें छुड़ाओ,
जग दुखों से हमें बचाओ।।
कर्म-बन्ध ढीले हो जाये,
तब ही प्रभु हम शरण में आये।
सच्चे हृदय से भक्ति करेंगे,
मन से प्रभुजी जाप करेंगे।।
पापकर्म से दूर हटेंगे,
क्रोध मान से दूर रहेंगे।
भक्ति का पथ हमको प्यारा,
क्षणभंगुर सुख इससे हारा।।
ज्ञान किरण हमको दिखला दो,
मुक्ति का रस्ता बतला दो।
ज्ञानामृत का भोजन पाऊँ,
और अमर इससे हो जाऊँ।।
श्री सम्मेद शिखर मन भाया,
वहाँ से मुक्ति को पडराया।
बार- बार मैं अरज करूँगा,
चरण आपके सदा रहूँगा।।
दोहा:-
चालीसा चालीस दिन, पढ़ना है सुखकार।
रिद्धि- सिद्धि मंगल करें, होवें भव से पार।।
श्री 'अर' प्रभु के चरण में, वन्दन शत-शत बार।
सबकी विपदायें हरो, विनती बारम्बार।।
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