सोमवार, 19 मई 2025

बीसवें तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ जी परिचय

बीसवें तीर्थंकर- श्री मुनिसुव्रतनाथ जी
चिह्न- कछुआ
उत्पन्न काल- 54 लाख 43 हज़ार 400 वर्ष पश्चात

कछुआ चिह्न से युक्त जैन धर्म के 20वें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी का प्रभु परिचय।

तीर्थंकर प्रकृति बन्ध- राजा हरिवर्मा (चम्पापुरी)
स्वर्ग/विमान- आनत स्वर्ग में इन्द्र (तिलोयपण्णति/4/522-525)
प्राणत स्वर्ग में इन्द्र (पद्मपुराण एवं हरिवंशपुराण)

तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी ने राजा हरिवर्मा की पर्याय में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया और वहां से आयु पूर्ण कर प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हुए।

गर्भकल्याणक
स्थान- राजगृही (कुशाग्र नगर)
कुल- यदुवंश (हरिवंश)
गोत्र- काश्यप गोत्रीय
पिता का नाम- राजा सुमित्र
माता का नाम- रानी श्यामा देवी (सोमावती)
तिथि- श्रावण कृष्ण द्वितीया
समय- पूर्वाह्नकाल (प्रातःकाल)
नक्षत्र- श्रवण

प्राणतेन्द्र की आयु पूर्ण कर तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के जीव ने राजगृही नगर के यदुवंशी काश्यप गोत्रीय राजा सुमित्र की पटरानी सोमा देवी के गर्भ में श्रावण कृष्ण द्वितीया के दिन प्रातःकाल के श्रवण नक्षत्र में अवतरित हुए।


जन्मकल्याणक
स्थान- राजगृही (कुशाग्र नगर)
तिथि- वैशाख कृष्ण दशमी
समय- पूर्वाह्नकाल (प्रातःकाल)
नक्षत्र- श्रवण
राशि- मकर
शरीर का रंग- नील वर्ण
शरीर की ऊंचाई- 20 धनुष

नौ माह उपरांत तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी ने राजगृही नगर में वैशाख कृष्ण दशमी के दिन पूर्वाह्नकाल के श्रवण नक्षत्र में मकर राशि में जन्म लिया। इनके शरीर का रंग नील वर्ण और शरीर की ऊंचाई 20 धनुष प्रमाण थी।

दीक्षाकल्याणक
वैराग्य का कारण- जातिस्मरण
तिथि- वैशाख कृष्ण दशमी
समय- अपराह्नकाल (दोपहर बाद)
नक्षत्र- श्रवण
पालकी- अपराजिता
नगर- राजगृही
वन- नील वन 
दीक्षा वृक्ष- चम्पक वृक्ष
वृक्ष की ऊंचाई- 240 धनुष
सहदीक्षित- 1 हज़ार राजा

एक दिन तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी को अपने पूर्वभवों के स्मरण से वैराग्य हो गया और तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी ने बैशाख कृष्ण दशमी के दिन अपराह्नकाल के श्रवण नक्षत्र में देवों द्वारा लाई गई अपराजिता नामक दीक्षा पालकी में आरूढ़ होकर राजगृही नगर के नील वन में 240 धनुष ऊँचाई वाले चम्पक वृक्ष के नीचे 1 हज़ार राजाओं सहित दीक्षा को ग्रहण किया।

प्रथमाहार
उपवास का नियम- तेला
दीक्षा के कितने दिन बाद- 3 दिन
स्थान- राजगृही नगर
आहारदाता - राजा वृषभदत्त
आहार की वस्तु- दूध की खीर
केवलज्ञान से पूर्व उपवास- 3 दिन
तपस्या काल- 7500 वर्ष केवलीकाल

तेला का नियम पूर्ण कर तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ जी ने दीक्षा के 3 दिन उपरांत राजगृही नगर के राजा वृषभदत्त के यहाँ दूध की खीर का प्रथमाहार ग्रहण किया। केवल ज्ञान से पूर्व उन्होंने तीन उपवास पूर्ण किए इनका केवली काल 7500 वर्ष प्रमाण था।

ज्ञानकल्याणक
तिथि- वैशाख कृष्णा नवमी
समय- पूर्वाह्नकाल (प्रातःकाल)
नक्षत्र- श्रवण
स्थान- राजगृही नगर
वन-नील वन
वृक्ष- चम्पक वृक्ष

तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ जी को वैशाख कृष्ण नवमी के दिन पूर्वाह्नकाल के श्रवण नक्षत्र में राजगृही नगर के नील वन में चम्पक वृक्ष के नीचे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।

समवशरण
विस्तार (योजन में)- 2.5 योजन
विस्तार (कोस में)- 10
कुल गणधर-18
मुख्य गणधर- मल्लि 
कुल मुनि- 30 हज़ार

केवलज्ञान उपरांत धनपति कुबेर द्वारा ढाई योजन और 10 को विस्तार वाले लम्बे चौड़े समवशरण की रचना की गई। तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के समवशरण में मुख्य गणधर श्री मल्लि सहित कुल 18 गणधर और 30 हज़ार मुनि थे।


पूर्वधर- 500
शिक्षक- 21 हज़ार
अवधिज्ञानी- 1,800
केवली - 1,800
विक्रियाधारी- 2,200
विपुलमति- 1,500
वादी मुनि- 1,200
अनुबद्ध केवली- 12

जिनमें 500 पूर्वधर, 21 हज़ार शिक्षक, 1,800 अवधिज्ञानी, 1,800 केवली, 2,200 विक्रियाधारी, 1500 विपुलमति, 1200 वादी मुनि सहित 12 अनुबद्ध केवली समवशरण के प्रथम परकोठे में विराजमान थे।

मुख्य आर्यिका- पूर्वदत्ता जी
आर्यिका- 50 हज़ार
मुख्य श्रोता- राजा अजितञ्जय
श्रावक- 1 लाख
श्राविकाएँ- 3 लाख

तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के समवशरण में मुख्य आर्यिका पूर्वदत्ता सहित 50 हज़ार आर्यिकाएँ एवं मुख्य श्रोता राजा अजितञ्जय सहित कुल 1 लाख श्रावक और 3 लाख श्राविकाओं सहित...

मुख्य यक्ष- श्री भृकुटि देव (वरुण)
मुख्य यक्षिणी- श्री अपराजिता देवी (बहुरूपिणि देवी)
क्षेत्रपाल- 1.श्री तनदराज जी 2. श्री गुणराज 3. श्री कल्याणराज जी 4. श्री भव्यराज जी।

मुख्य यक्ष श्री भृकुटि देव और मुख्य यक्षिणी श्री अपराजिता देवी सहित चार क्षेत्रपाल श्री तनदराज जी श्री गुणराज श्री कल्याणराज श्री भव्यराज प्रतिदिन भगवान की दिव्यध्वनि का श्रवण करते थे।

मोक्षकल्याणक
तिथि- फाल्गुन कृष्णा द्वादशी
योगनिरोध- 1 माह पूर्व
समय- सांयकाल
स्थान- श्री सम्मेदशिखर जी
विशिष्ठ स्थान- निर्झर कूट
नक्षत्र- श्रवण
आसन- खड्गासन
सहमुक्त- 1 हज़ार मुनि

बहुत वर्षों तक भव्यों को उपदेश देने के उपरांत तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी ने एक माह का योगनिरोध पूर्णकर फाल्गुन कृष्णा द्वादशी के दिन सांयकाल के श्रवण नक्षत्र में श्री सम्मेदशिखर जी के निर्झर कूट से खड्गासन मुद्रा में 1 हज़ार मुनियों सहित मोक्ष को प्राप्त किया।

अनुत्तर विमान पाने वाले मुनि- 8 हज़ार 800 मुनि
मोक्ष पाने वाले- 19 हज़ार 200 मुनि
पहले से ग्रैवेयक पद पाने वाले- 2000 मुनि

तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के समवशरण से अनुत्तर विमान पाने वाले 8 हज़ार 800 मुनि, मोक्ष पाने वाले 19 हज़ार 200 मुनि, पहले से ग्रैवेयक पद पाने वाले 2 हज़ार हुए है।

विवाह- विवाहित
मुख्य पुत्र- विजय
संघपति- राजा श्री रामचन्द्र जी

तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के संघपति का नाम राजा श्री रामचन्द्र जी था।

कुमार काल- 7500 वर्ष
राज्यकाल- 15 हज़ार वर्ष।
केवली काल- 7500 वर्ष (11 माह कम)
छद्मस्थ काल- 11 माह
आयु- 30 हज़ार वर्ष
तीर्थ प्रवर्तन काल- 6 लाख 5 हज़ार वर्ष प्रमाण

तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी का कुमार काल 7500 वर्ष, राज्यकाल 15 हज़ार वर्ष प्रमाण, केवली काल 7500 वर्ष एक माह कम प्रमाण, छद्मस्थ काल 11 माह, और इनकी कुल आयु 30 हज़ार वर्ष प्रमाण थी। तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी का तीर्थ प्रवर्तन काल 6 लाख 5 हज़ार वर्ष तक रहा था।

प्रभु के काल में शलाका पुरुष
दसवें चक्रवर्ती- श्री हरिषेण
आठवें बलदेव- श्री राम
आठवें नारायण- श्री लक्ष्मण
आठवें प्रतिनारायण- श्री रावण
विशेष पद- माण्डलिक राजा

तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के तीर्थ काल में 10वें चक्रवर्ती श्री हरिषेण, 8वें बलदेव श्री रामचन्द्र जी, 8वें नारायण श्रीलक्ष्मण, 8वें प्रतिनारायण श्री रावण हुए हैं। तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ जी को माण्डलिक राजा का विशेष पद प्राप्त हुआ।

शनिवार, 26 मई 2018

                                 ।।सामयिक पाठ।।

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनोंमें हर्ष प्रभो।
करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥
यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो।
ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥
सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो।
वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥
जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ।
वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥
एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो।
शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥
मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से।
विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥
चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त।
अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥
सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया।
व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किया॥ 8॥
कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया।
पी पीकर विषयों की मदिरा मुझ में पागलपन आया॥ 9॥
मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया।
परनिन्दा गाली चुगली जो मुँह पर आया वमन किया॥ 10॥
निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे।
निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे॥ 11॥
मुनि चक्री शक्री के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे।
गाते वेद पुराण जिसे वह, परम देव मम हृदय रहे॥12॥
दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार हों वमन किये।
परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे॥13॥
जो भव दुख का विध्वंसक है, विश्व विलोकी जिसका ज्ञान।
योगी जन के ध्यान गम्य वह, बसे हृदय में देव महान्॥ 14॥
मुक्ति मार्ग का दिग्दर्शक है, जनम मरण से परम अतीत।
निष्कलंक त्रैलोक्य दर्शी वह देव रहे मम हृदय समीप॥ 15॥
निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे न द्वेष रहे।
शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभावी, परम देव मम हृदय रहे॥ 16॥
देख रहा जो निखिल विश्व को कर्म कलंक विहीन विचित्र।
स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह देव करें मम हृदय पवित्र॥ 17॥
कर्म कलंक अछूत न जिसको कभी छू सके दिव्य प्रकाश।
मोह तिमिर को भेद चला जो परम शरण मुझको वह आप्त॥ 18॥
जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फीका पड़ता सूर्य प्रकाश।
स्वयं ज्ञानमय स्व पर प्रकाशी, परम शरण मुझको वह आप्त॥ 19॥
जिसके ज्ञान रूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ।
आदि अन्तसे रहित शान्तशिव, परम शरण मुझको वह आप्त॥
जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव।
भय विषाद चिन्ता नहीं जिनको, परम शरण मुझको वह देव॥
तृण, चौकी, शिल, शैलशिखर नहीं, आत्म समाधि के आसन।
संस्तर, पूजा, संघ-सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन॥ 22॥
इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, विश्व मनाता है मातम।
हेय सभी हैं विषय वासना, उपादेय निर्मल आतम॥ 23॥
बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं।
यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें॥
अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास।
जग का सुख तो मृग तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ॥ 25॥
अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है।
जो कुछ बाहर है, सब पर है, कर्माधीन विनाशी है॥ 26॥
तन से जिसका ऐक्य नहीं हो, सुत, तिय, मित्रों से कैसे।
चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह रहे कैसे॥ 27॥
महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ, जड़-देह संयोग।
मोक्षमहल का पथ है सीधा, जड़-चेतन का पूर्ण वियोग॥ 28॥
जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़।
निर्विकल्प निद्र्वन्द्व आत्मा, फिर-फिर लीन उसी में हो॥ 29॥
स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते।
करे आप, फल देय अन्य तो स्वयं किये निष्फल होते॥ 30॥
अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी।
पर देता है’ यह विचार तज स्थिर हो, छोड़ प्रमादी बुद्धि॥ 31॥
निर्मल, सत्य, शिवं सुन्दर है, ‘अमितगति’ वह देव महान।
शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण॥ 32॥
दोहा
इन बत्तीस पदों से जो कोई, परमातम को ध्याते हैं।

साँची सामायिक को पाकर, भवोदधि तर जाते हैं॥  

बुधवार, 2 मई 2018

                       ।।श्री मल्लिनाथ चालीसा।।

दोहा:-
परमेष्ठी की भक्ति ही, करती पाप से दूर।
जिनवाणी की आरती, देती सुख भरपूर।।
मल्लिनाथ भगवान के, चरणन शीश झुकाये।
चालीसा मैं नित पढूं रोग शोक नश जाएं।।

चोपाई:-

ज्ञान ज्योति में मेरे जिनवर।
ध्यान मती में मेरे जिनवर।।
मल्लिनाथ जी नाम तुम्हारा।
चरणों में है नमन हमारा।।

सर्वगुणी और अनुपम ज्ञानी।
वाणी आपकी है जिनवाणी।।
मुक्ति सुख का आनन्द लेते।
भक्तों को शुभ ज्ञान भी देते।।

मिथिला नगरी धन्य हो गयी।
रत्नों की वृष्टि भी हो गयी।।
राजा कुम्भ घर शहनाई।
माँ आंगन में बजी बधाई।।

गर्भ, जन्म कल्याणक पाये।
सुर नर मिल उत्सव को गाये।।
खुश हो नाच नाचकर गाये।
तांडव नृत्य भी इंद्र दिखाये।।

बागों में आई फुलवारी।
वृक्ष फलों से लदे थे भारी।।
कोयल मीठे भजन सुनावे।
सबका मन पुलकित हो जावे।।

जिनवर मीठी बोली बोले।
मात- पिता सबका मन डोले।।
मति- श्रुति- अवधि ज्ञान के धारी।
भाव शुद्ध हो आत्मबिहारी।।

आठ वर्ष में अणुव्रत धारे।
सब बालक में वे थे न्यारे।।
आगम के अनुरूप थी चर्या।
चलने में समती थी ईर्या।।

नही किसी को आप सताते।
अच्छी अच्छी बात बताते।।
छोटे से गुरु आप ही लगते।
नर नारी के भाव उमड़ते।।

यौवन की जब बारी आई।
मात पिता ने करी सगाई।।
महलों में हो गयी तैयारी।
मिथिलापुर की शोभा न्यारी।।

किंतु मन वैराग्य समाया।
शादी करना मन न भाया।।
बने दिगम्बर लेली दीक्षा।
क्षणभंगुर सुख तज दी इच्छा।।

जंगल में ही वास बसाया।
आतम में ही ध्यान लगाया।।
मिथिला में आहार किया था।
नन्दीषेण ने पुण्य लिया था।।

कर्म भी डरकर शीघ्र ही भागे।
केवलज्ञान का दीप भी जागे।।
चारों और हुआ उजियाला।
भक्त फेरते आपकी माला।।

इंद्र ने आज्ञा तब कर दीनी।
धनकुबेर रचना कर दीनी।।
दौड़ दौड़कर सुर नर आये।
वीतराग प्रभु की छवि पाये।।

लख मुद्रा मोहित हो जाते।
सूर्य चाँद फीके पड़ जाते।।
दुष्ट कर्म भी पास न आवे।
रोग शोक बीमारी जावे।।

अंधा प्रभु का दर्शन करता।
लँगड़ा भी सीढ़ी चढ़ जाता।।
बेहरा प्रभु की वाणी सुनता।
मिथ्यादृष्टि सिर को धुनता।।

पगले को बुद्धि मिल जाती।
ध्यानी को मुक्ति मिल जाती।।
हम भी प्रभु जी भक्त तुम्हारे।
मिले आपके चरण सहारे।।

भाव विभाव सभी मिट जावे।
मुक्ति पथ पर हम भी जावे।।
क्षणभंगुर सुख की इच्छाएं।
हमको ये संसार घुमाएं।।

बस मन में शांति हो जावे।
हर क्षण तेरा ध्यान लगावे।।
श्री सम्मेद शिखर जा पहुँचे।
बैठे वहां पे आँखे मीचे।।

योगनिरोध से कर्म नशाये।
फिर मुक्ति में वास वसाये।।
परमातम पद आपने पाया।
भक्तों ने है शीश झुकाया।।

चिंतन में प्रभु मेरे रहना।
और नही कुछ तुमसे कहना।।
शुद्ध भाव से तुमको ध्याऊँ।
नित चरणों में शीश झुकाऊँ।।

दोहा:-
चालीसा चालीस दिन, पढ़ना है सुखकार।
रिद्धि सिद्धि समृद्धि हो होवें भव से पार।।
मल्लिनाथ भगवान से, विनती बारम्बार।

दुख संकट मेरे नशे, नमन है शत शत बार।।

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

                        ।। श्री अनन्तनाथ चालीसा।।

अनन्त चतुष्टय धारी ‘अनन्त, अनन्त गुणों की खान “अनन्त’ ।
सर्वशुद्ध ज्ञायक हैं अनन्त, हरण करें मम दोष अनन्त ।
नगर अयोध्या महा सुखकार, राज्य करें सिहंसेन अपार ।
सर्वयशा महादेवी उनकी, जननी कहलाई जिनवर की ।
द्वादशी ज्येष्ठ कृष्ण सुखकारी, जन्मे तीर्थंकर हितकारी ।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर, न्हवन करें मेरु पर जाकर ।
नाम “अनन्तनाथ’ शुभ दीना, उत्सव करते नित्य नवीना ।
सार्थक हुआ नाम प्रभुवर का, पार नहीं गुण के सागर का ।
वर्ण सुवर्ण समान प्रभु का, ज्ञान धरें मति- श्रुत- अवधि का ।
आयु तीस लख वर्ष उपाई, धनुष अर्धशत तन ऊंचाई ।
बचपन गया जवानी आई, राज्य मिला उनको सुखदाई ।
हुआ विवाह उनका मंगलमय, जीवन था जिनवर का सुखमय ।
पन्द्रह लाख बरस बीते जब, उल्कापात से हुए विरक्त तब ।
जग में सुख पाया किसने-कब, मन से त्याग राग भाव सब ।
बारह भावना मन में भाये, ब्रह्मर्षि वैराग्य बढाये ।
“अनन्तविजय” सुत तिलक-कराकर, देवोमई शिविका पधरा कर ।
गए सहेतुक वन जिनराज, दीक्षित हुए सहस नृप साथ ।
द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मास, तीन दिन का धारा उपवास ।
गए अयोध्या प्रथम योग कर, धन्य ‘विशाख’ आहार करा कर ।
मौन सहित रहते थे वन में, एक दिन तिष्ठे पीपल- तल में ।
अटल रहे निज योग ध्यान में, झलके लोकालोक ज्ञान में ।
कृष्ण अमावस चैत्र मास की, रचना हुई शुभ समवशरण की ।
जिनवर की वाणी जब खिरती, अमृत रस कानों को लगती ।
चतुर्गति दुख चित्रण करते, भविजन सुन पापों से डरते ।
जो चाहो तुम मुक्ति पाना, निज आतम की शरण में जाना ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित है, कहे व्यवहार मेँ रतनत्रय हैं ।
निश्चय से शुद्धातम ध्याकर, शिवपद मिलता सुख रत्नाकर ।
श्रद्धा करके भव्य जनों ने, यथाशक्ति व्रत धारे सबने ।
हुआ विहार देश और प्रान्त, सत्पथ दर्शाये जिननाथ ।
अन्त समय गए सम्मेदाचल, एक मास तक रहे सुनिश्चल ।
कृष्ण चैत्र अमावस पावन, मोक्षमहल पहुंचे मनभावन ।
उत्सव करते सुरगण आकर, कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर ।
शुभ लक्षण प्रभुवर का ‘सेही’, शोभित होता प्रभु- पद में ही ।
अरुणा अरज करे बस ये ही, पार करो भवसागर से ही ।
है प्रभु लोकालोक अनन्त, झलकें सब तुम ज्ञान अनन्त ।

हुआ अनन्त भवों का अन्त, अद्भुत तुम महिमा है “अनन्त’ ।

रविवार, 1 अप्रैल 2018

                           ।।श्री अरहनाथ चालीसा।।

दोहा:-
पाँचों ही परमेष्ठी को, वन्दन बारम्बार।
जिनवाणी का ज्ञान ही, जीवन का आधार।।
श्री 'अरह' प्रभु की वन्दना, काटे कर्म क्लेश।
चालीसा पढ़कर मिले, सच्चा आतम भेष।।

चौपाई:-
सिद्धो की श्रेणी में रहते, 
सिद्ध प्रभु हम आपको कहते।
आठों कर्मों को नाशा है,
सिद्धालय में ही वासा है।।

भक्तों के आराध्य आप हो,
भक्तों के भी साध्य आप हो।
साधन है 'अरह' नाम तुम्हारा,
मुक्ति का मिल जाये किनारा।।

नम्रीभूत जगत है सारा,
वन्दन करता बारम्बारा।
सोमवंश में जन्म है पाया,
मित्रसेना को माँ बतलाया।।

पिता सुदर्शन सम्यग्दृष्टि,
महल में होती रत्न की वृष्टि।
सोलह शुभ सपने लख माँ ने,
तीर्थंकर के जन्म को पाने।।

चहुँ दिश निर्मल वायु बहती,
छह ऋतुएँ भी संग- संग रहती।
सब प्राणी के मन खुशहाली,
पूर्व दिशा में आई लाली।।

इन्द्रों संग सुर भू पर आये,
कल्याणक खुशियाँ बरसाये।
लक्ष्मी ने आ डाला डेरा,
सबके दुर्दिन को है फेरा।।

तीर्थंकर की महिमा गाई,
बस 'अर' प्रभु का नाम सहाई।
जब यौवन का मौसम आया,
कन्यायों को फिर परिणाया।।

राज्य पिता ने तुमको दीना,
न्याय से प्रभु ने कार्य को कीना।
चक्ररत्न ने स्वामी माना,
चक्रवर्ती बन विजय को जाना।।

षटखण्ड राजा शरण में आये,
आज्ञा को सिर माथ चढाये।
स्वप्न में भी खुद पास न आता,
जोड़ा फिर आतम से नाता।।

कामदेव पदवी के धारी,
किससे उपमा करें तुम्हारी।
देख सभी मोहित हो जाते,
बात कोई वे सोच न पाते।।

शरद ऋतु के बादल देखे,
फटे हुए थे कारण लेखे।
क्षणभंगुर संसार को जाना,
पहना फिर वैराग्य का बाना।।

कुम्भकार सम चक्र को छोड़ा,
गृहलक्ष्मी से नाता तोड़ा।
दीक्षा ले संयम को धारा,
नश्वर सुख को दिया किनारा।।

पँचमुष्ठी केशलोंच किया था,
आतम निज में लीन किया था।
एक सहज राजा संग आये,
दीक्षा ले संग ध्यान लगाये।।

तप अग्नि में कर्म जलाये,
केवलज्ञान का दीप जलाये।
देवों ने आ पूजा कीनी,
समवशरण रचना कर दीनी।।

भक्तों को स्थान मिला था,
भक्त हृदय भी शीघ्र खिला था।
जिनवरमुद्रा पाठ पढ़ाती,
ज्ञान- ध्यान की याद दिलाती।।

जिस- जिस ने प्रभु नाम लिया था,
उसका बेड़ापार हुआ था।
चार गति से हमें छुड़ाओ,
जग दुखों से हमें बचाओ।।

कर्म-बन्ध ढीले हो जाये,
तब ही प्रभु हम शरण में आये।
सच्चे हृदय से भक्ति करेंगे,
मन से प्रभुजी जाप करेंगे।।

पापकर्म से दूर हटेंगे,
क्रोध मान से दूर रहेंगे।
भक्ति का पथ हमको प्यारा,
क्षणभंगुर सुख इससे हारा।।

ज्ञान किरण हमको दिखला दो,
मुक्ति का रस्ता बतला दो।
ज्ञानामृत का भोजन पाऊँ,
और अमर इससे हो जाऊँ।।

श्री सम्मेद शिखर मन भाया,
वहाँ से मुक्ति को पडराया।
बार- बार मैं अरज करूँगा,
चरण आपके सदा रहूँगा।।

दोहा:-
चालीसा चालीस दिन, पढ़ना है सुखकार।
रिद्धि- सिद्धि मंगल करें, होवें भव से पार।।
श्री 'अर' प्रभु के चरण में, वन्दन शत-शत बार।

सबकी विपदायें हरो, विनती बारम्बार।।

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

                         ।।श्री विमलनाथ चालीसा।।

सिद्ध अनन्तानन्त नमन कर, सरस्वती को मन में ध्याय ।।
विमलप्रभु क्री विमल भक्ति कर, चरण कमल में शीश नवाय ।।
जय श्री विमलनाथ विमलेश, आठों कर्म किए नि:शेष ।।
कृतवर्मा के राजदुलारे, रानी जयश्यामा के प्यारे ।।
मंगलीक शुभ सपने सारे, जगजननी ने देखे न्यारे ।।
शुक्ल चतुर्थी माघ मास की, जन्म जयन्ती विमलनाथ की ।।
जन्योत्सव देवों ने मनाया, विमलप्रभु शुभ नाम धराया ।।
मेरु पर अभिषेक कराया, गन्धोंदक श्रद्धा से लगाया ।।
वस्त्राभूषण दिव्य पहनाकर, मात-पिता को सौंपा आकर ।।
साठ लाख वर्षायु प्रभु की, अवगाहना थी साठ धनुष की ।।
कंचन जैसी छवि प्रभु- तन की, महिमा कैसे गाऊँ मैं उनकी ।।
बचपन बीता, यौवन आया, पिता ने राजतिलक करवाया ।।
चयन किया सुन्दर वधुओं का, आयोजन किया शुभ विवाह का ।।
एक दिन देखी ओस घास पर, हिमकण देखें नयन प्रीतिभर ।।
हुआ संसर्ग सूर्य रश्मि से, लुप्त हुए सब मोती जैसे ।।
हो विश्वास प्रभु को कैसे, खड़े रहे वे चित्रलिखित से ।।
“क्षणभंगुर है ये संसार, एक धर्म ही है बस सार ।।
वैराग्य हृदय में समाया, छोडे क्रोध -मान और माया ।।
घर पहुँचे अनमने से होकर, राजपाट निज सुत को देकर ।।
देवीमई शिविका पर चढ़कर, गए सहेतुक वन में जिनवर ।।
माघ मास-चतुर्थी कारी, “नम: सिद्ध” कह दीक्षाधारी ।।
रचना समोशरण हितकार, दिव्य देशना हुई सुरवकार ।।
उपशम करके मिथ्यात्व का, अनुभव करलो निज आत्म का ।।
मिथ्यात्व का होय निवारण, मिटे संसार भ्रमण का कारणा ।।
बिन सम्यक्तव के जप-तप-पूजन, विष्फल हैँ सारे व्रत- अर्चन ।।
विषफल हैं ये विषयभोग सब, इनको त्यागो हेय जान अब ।।
द्रव्य- भाव्-नो कमोदि से, भिन्न हैं आत्म देव सभी से ।।
निश्चय करके हे निज आतम का, ध्यान करो तुम परमात्म का ।।
ऐसी प्यारी हित की वाणी, सुनकर सुखी हुए सब प्राणी ।।
दूर-दूर तक हुआ विहार, किया सभी ने आत्मोद्धारा ।।
‘मन्दर’ आदि पचपन गणधर, अड़सठ सहस दिगम्बर मुनिवर ।।
उम्र रही जब तीस दिनों क, जा पहुँचे सम्मेद शिखर जी ।।
हुआ बाह्य वैभव परिहार, शेष कर्म बन्धन निरवार ।।
आवागमन का कर संहार, प्रभु ने पाया मोक्षागारा ।।
षष्ठी कृष्णा मास आसाढ़, देव करें जिनभवित प्रगाढ़ ।।
सुबीर कूट पूजें मन लाय, निर्वाणोत्सव को’ हर्षाय ।।
जो भवि विमलप्रभु को ध्यावें। वे सब मन वांछित फल पावें ।।
‘अरुणा’ करती विमल-स्तवन, ढीले हो जावें भव-बन्धन ।।

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

                       ।।गोम्मटेश भजन।।

होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे...... 2

कौन सा देश, कहाँ के राजा, कौन पिता कहलाय...2
कौन मात के जाय बाहुबली, होली खेले रे...
                           महल में होली खेले रे...2
   होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

भारत देश में राज्य अयोध्या, ऋषभनाथ सुत पाय,
मात सुनन्दा जाय बाहुबली, होली खेले रे...
                           महल में होली खेले रे...2
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

चंदा सूरज सी छवि जिनकी, क्या क्या नाम धराये,
करत कलोल महल में दोनों सब मन भाय रे...2
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

भरत बड़े, बाहुबली छोटे, नाम जगत में पायें... 2
दो बहनों संग दोनों भैया होली खेले रे...
                        महल में होली खेले रे....
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

कालचक्र की गति है न्यारी, ऋषभ भये वैरागी,
वेष दिगम्बर धार करम संग होली खेले रे...
                    भरत संग होली खेले रे...
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

कर्म काट शिवपुर को ध्याये, तीर्थंकर पद पाये...2
आदिनाथ से पूर्व बाहुबली मुक्ति पाये रे....
                    केवली प्रथम कहाये रे....
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

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