बुधवार, 8 मार्च 2017

गुणस्थान को जानिये

श्री वीतरागाय नम:
श्री विद्यासागराय नम:

                          ।।गुणस्थान।।

गुणस्थान में उतरने चढने का मार्ग

* पहले गुणस्थान ऊपर गमन के चार मार्ग है | पहले से तीसरे, चौथे, पांचवें, और सातवें गुणस्थान में जा सकते हैं |

* दूसरे गुणस्थान से ऊपर के गमन का एक भी मार्ग नही है | नीचे का एक ही मार्ग पहला गुणस्थान है |

* तीसरे गुणस्थान से  ऊपर के गमन का एक ही मार्ग चौथा गुुणस्थान है | नीचे के गमन का एक ही मार्ग पहला गुणस्थान है |

* चौथे गुणस्थान से ऊपर के गमन के दो मार्ग पाँचवा और सातवा गुणस्थान है | नीचे के गमन तीन मार्ग तीसरा, दूसरा, पहला गुुणस्थान है |

* पांचवे गुणस्थान से ऊपर के गमन के एक ही मार्ग सातवा  गुणस्थान है | नीचे के गमन के चार मार्ग चौथे, तीसरे, दूसरे ,पहला गुुणस्थान है

* छट्ठवें गुणस्थान से ऊपर के गमन के एक ही मार्ग सातवा गुणस्थान है | नीचे के गमन के पांच मार्ग - पांचवें, चौथे, तीसरे, दूसरे, पहला गुुणस्थान है |

* सातवें गुणस्थान (उपशम श्रेणी के सन्मुख) से ऊपर गमन के एक ही मार्ग आठवां गुणस्थान है | नीचे के गमन के दो ही मार्ग छट्ठवा गुणस्थान और मरण अपेक्षा चौथा गुणस्थान है |

* आठवें गुणस्थान (उपशम श्रेणी) से ऊपर के गमन का एक ही मार्ग नवमा गुणस्थान है | नीचे की और गमन के दो मार्ग सातवा गुणस्थान और मरण की अपेक्षा चौथा गुणस्थान है |

* नवमा गुणस्थान (उपशम श्रेणी) से ऊपर का एक ही मार्ग दशवा गुणस्थान है | नीचे के गमन के दो मार्ग आठवां गुणस्थान और मरण की अपेक्षा चौथा गुुणस्थान है |

* दशवें गुणस्थान (उपशम श्रेणी) से ऊपर के गमन के एक ही मार्ग ग्यारहवाँ गुणस्थान है | नीचे के गमन के दो मार्ग नवमा गुणस्थान और मरण की अपेक्षा चौथा गुणस्थान है |

* ग्यारहवें गुणस्थान से ऊपर के गमन का एक भी मार्ग नही है नीचे के गमन के दो मार्ग दशवा गुणस्थान और मरण की अपेक्षा चौथा गुणस्थान है |

सातवें गुणस्थान क्षपक श्रेणी वाले के ऊपर आठवें, नवमें, दशवें, बारहवें, तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में (सिद्ध) इस प्रकार ऊपर के ही मार्ग है | क्षपकश्रेणी वाला केनीचे के एक भी मार्ग नही है |

* दूसरा और छट्ठा गुणस्थान गिरते समय ही होता है |

शनिवार, 4 मार्च 2017

।।समाधि भावना।।

                      ।।मंगलाचरण।।

मंगलमूर्ति अरहंत का नाम जपे जो कोई,
ताके कर्म-बंधन नित स्व भिन्न होई।
पावन पार्श्व जिनेश का पावन मंगल नाम,
जो सुमिरें जिनदेव को होता है शिवधाम।।

1) भगवन जिनेंद्र स्वामी भावना दिन रात गाऊँ,
    होवे मेरी समाधि मुक्ति महल को पाऊँ।

भावार्थ - हे जिनेन्द्र देव ! मैं दिन रात यही भावना भाता हूँ कि जब भी मेरी मृत्यु हो तो मैं समाधि मरण को ही प्राप्त करूँ, और उसके निमित्त से मेरी मुक्ति सहज हो।

2) करूँ जिनेन्द्र आराधना संयम धर्म पालूँ,
न हो लेश कषाय राग-द्वेष निश दिन तुमको ध्याऊँ।

भावार्थ - हे भगवन ! जब भी मैं कोई कर्म करूँ तो मैं आपका ही ध्यान करूँ, जिन पथ अर्थात संयम धारण करूँ मेरे सारे राग द्वेष नष्ट हो जाये कषाय लेश मात्र न रहे और हे नाथ! मैं निशदिन आपका ध्यान करता रहूं।

3) न हो किसी से मैत्री, रिपु जग में न हो कोई,
   लगन लगी हो जिन में मैं मोह को हटाऊँ।

भावार्थ - हे जगन्नाथ ! मेरा इस संसार में न ही कोई मित्र हो और न ही कोई शत्रु हो। मैं बस आपका ही ध्यान करूँ और मेरा मोहनीय कर्म नष्ट हो।

4) न चाहूँ सुर पद, मानव पद की न इच्छा,
   न चाहूँ शिव पद जिन चरण को ध्याऊँ।

भावार्थ - हे नाथ ! न मुझे सुर पद की लालसा है और न ही मनुष्य जन्म की और न ही मोक्ष कि मेरी बस इतनी ही अर्ज है कि मेरे मन में बस आपके चरणों की भक्ति ही चलती रहे।

5) अटका हूँ भव मग में, आश्रय न ही कोई,
    होवे सरल समाधि विपथ न अपनाऊँ।।

भावार्थ - हे प्रभु ! मैं इस संसार में अटका हुआ हूँ और न ही इस संसार में आश्रय है। हे नाथ ! मेरी समाधि सहज हो और विपथ गमन को ध्यान न करते हुए मैं इस समाधि को धारण करूँ मेरी बस इतनी ही प्रार्थना है।

6) छूटें जन्म बंधन और मृत्यु का घेरा,
   पाऊँ शिव पद को न हो कर्मों का पहरा।
  आशा मेरी है भगवन रत्नत्रय चित लाऊँ।।

भावार्थ - हे नाथ ! मेरी प्रार्थना है कि मैं जन्म मरण के बंधन से मुक्ति पाऊँ, मुक्ति का वरण करूँ कर्मों का नाश करूँ और रत्नत्रय का पालन करूँ और उसी के सहारे पार हो जाऊं।

7) हो अंत में समाधि रत्नत्रय का हो सुमिरन,
पञ्च परमगुरु की वाणी को मैं ध्याऊँ।
जीवन सफल हो मेरा सिद्ध सम बन जाऊँ,
होवे मेरी समाधि मुक्ति महल को पाऊँ।।

भावार्थ - हे भगवन ! जब मेरा अंत समय निकट हो अर्थात मेरा समाधि मरण निश्चित हो जाए तब मैं रत्नत्रय को ही सुमिरता रहूँ और पञ्च परमेष्ठी की वाणी का अनुशरण करता रहूँ। सिद्ध सम बनने के प्रयास से जीवन सफल बनाऊँ। इसी भावना से मेरी समाधि हो और इसके द्वारा मैं मुक्ति सुख प्राप्त करूँ।

               ।। इति समाधि भावना।।
                                         By Rahul Soni

                       ।।जय जिनेंद्र।।

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

भजन - शिवपुर पथ परिचायक

शिवपुर पथ परिचायक जय है सन्मति युग निर्माता,
गंगा कल-कल स्वर से गाती तब गुण गौरव गाथा।
सुर-नर-किन्नर तब पदयुग में नित-नत करते माथा,
हम भी तब यश गाते सादर शीश झुकाते है नाथा।
दुखहारक सुखदायक जय है सन्मति युग निर्माता,
        
         जय है जय है जय है जय जय जय जय है.....

मंगलकारक दयाप्रचारक स्वर्ग पशु नर उपकारी,
भविजनतारक कर्मविदारक सब जन तब आभारी।
जब तक रवि-शशि तारे तब तक गीत तुम्हारे है नाथा,
चिर सुख शांति विधायक जय है सन्मति युग निर्माता।

         जय है जय है जय है जय जय जय जय है.....

भ्रात भावना भुला परस्पर लड़ते है जो प्राणी,
उनके उर में विश्व प्रेम फिर भरे तुम्हारी वाणी।
सबमें करुणा जागे जग से हिंसा भागे है नाथा
है गुण जय दुखत्रायक जय है सन्मति युग निर्माता।

           जय है जय है जय है जय जय जय जय है.....

                      ।।जय जिनेन्द्र।।

बुधवार, 1 मार्च 2017

संसार की जड़ मिथ्यात्व

जय जिनेन्द्र दर्शकों मैं राहुल सोनी आज आपको बताऊंगा संसार की जड़ मिथ्यात्व।

आइये जानते है मिथ्यात्व क्या है? इससे क्या हानि है?और ये संसार की जड़ क्यों है?आपको बताते है मिथ्यात्व को जैन धर्म में सबसे बड़ी संसार की वजह बताया गया है।वह इसलिए क्योंकि इससे हमें लाभ कुछ नही है सिर्फ हानि ही है।अब जानते है इसके बारे में और गहराई से।

मिथ्यात्व क्या है?

असल में विपरीत मान्यताएं ही मिथ्यात्व का लक्षण है।जैसे की हम कहे की हिंसा पाप है वही मिथ्यात्व हिंसा से पुण्य की प्राप्ति बताता है।हिंसक यज्ञ करना, पशु बलि से देवी देवता को प्रसन्न करना आदि। यही मिथ्यात्व है।वीतराग को छोड़ सराग की पूजा ही मिथ्यात्व है ये तो हुए मिथ्यात्व के उदहारण अब आपको बताते है अर्हंत देव क्या बताते है इस बारे में भगवान ने कहा है जो मिथ्यात्व की पूजा करता है वह अनंत संसार में भ्रमण का कारन बनता है।तत्व के विपरीत श्रद्धान ही मिथ्यात्व है।

मिथ्यात्व से क्या हानि है?

यदि हम कहे सर्प के डसने पर हमें हानि है या लाभ तो ये प्रश्न उचित नही है क्योंकि स्वाभाविक हानि ही है।क्योंकि अगर हमें सर्प डसता है तो हमारी मृत्यु निश्चित है यदि सही समय पर उपचार न मिले तो।ठीक इसी प्रकार हम मिथ्यात्व को पूजते अथवा बड़ा मानते है तो उसमें हमारा ही नुकसान है और किसी का नही सम्यक्त्व वह औषधि है जो मिथ्यात्व रूपी विष को समाप्त कर देता है।इसलिए हमें मिथ्यात्व को नही मानना चाहिए।

मिथ्यात्व संसार की जड़ क्यों है?

ये सबसे बड़ा प्रश्न है कि मिथ्यात्व संसार की जड़ क्यों है।वह इसलिए क्योंकि जो स्वयं संसार से भ्रमित है जो संसार में डूबा है वह हमारा कैसे कल्याण कर सकता है।इसलिए हमारे आचार्यों ने इसे बाधा के रूप में बताया है। विनय पाठ की पंक्तियों में कहा भी गया है।

राग सहित जग में रुलयों मिले सरागी देव।
वीतराग भेट्यों अबे मेटो राग कुटेव।।

जो मिथ्यात्व हमे संसार में जन्म से रुलाता आया है वह हमें कैसे सुखी कर सकता है।वीतराग देव की शरण में ही सच्चा सुख है।

मिथ्यात्व के प्रकार :-

हमारे आचार्यों ने मिथ्यात्व कोदो प्रकार का बताया है।
1. गृहीत मिथ्यात्व
2. अगृहीत मिथ्यात्व
अगर हम देखे तो पंडित दौलतराम जी ने छहढाला की दूसरी ढाल में मिथ्यात्व का भली प्रकार वर्णन किया है।कहा भी है:-

जे कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव,पोषे चिर दर्शन मोह एव।
अंतर रागादिक धरे जे, बाहर धन अम्बर ते सनेह।।

तो इस प्रकार हम मिथ्यात्व को समझे और इससे बचे और सच्चे सुख की और अग्रसर हो।
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                     ।।जय जिनेन्द्र।।

मोक्ष कैसे हो?

मोक्षमार्गस्य नेत्तारं भेत्तारं कर्म भूभृताम्।
ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये।।

अर्थ : जो मोक्ष मार्ग के नेता है, जिन्होंने अपने कर्म को नष्ट कर दिया है।जो विश्व के सभी तत्वों के ज्ञाता है।ऐसे जिनेन्द्र देव के गुण हमे भी प्राप्त हो।

ये श्लोक तत्वार्थ सूत्र से लिया गया है।इसके रचियेता उमास्वामी जी महाराज है।हम मोक्ष को क्या समझते है? उसके बारे में क्या जानते है?मोक्ष कहा है?कैसा है?कौन है वहां? और सबसे बड़ा प्रश्न तो ये है मोक्ष होता किसको है और कब होता है ?

हर धर्मों में मोक्ष की एक अलग व्याख्या है जैसे हिन्दू बुद्ध आदि परंतु कई मतों में मोक्ष को स्थान प्राप्त ही नही है।

वैदिक मत में मोक्ष
कहा जाता है जब आत्मा को परमात्मा अपने पास रख लेता है या शुभ कर्मों के द्वारा आत्मा उस लायक हो जाती है उसको वैदिक मत में मोक्ष कहा गया है।और वैदिक मत अनुसार आत्मा का कोई अस्तित्व नही होता मोक्ष के बाद उसको वेदों अनुसार मोक्ष कहा गया है।

इस्लाम मत में मोक्ष
मोक्ष को इस्लाम में मगफिरत कहा गया है।पर इस्लाम में मोक्ष का इतना महत्त्व नही दिया गया है।

बोद्ध मत में मोक्ष
बोद्ध अनुसार आत्मा जब बोधिज्ञान को प्राप्त कर लेती है और निर्वाण लायक हो जाती है।तब आत्मा को मोक्ष हो जाता है।भगवान बुद्ध ने मोक्ष (निर्वाण) को धम्म से जोड़ा है अर्थात धर्म से जोड़कर कहा है।मोक्ष तो एक व्यवस्था है।

आइये जानते है....जैन मत में मोक्ष का क्या महत्त्व है।

मोक्ष के कई नाम है जैसे सिद्धालय निर्वाण सिद्धशिला आदि।पर हम ये कैसे जाने की यहाँ तक पंहुचा कैसे जाए। जिनदेव ने मोक्ष के बारे में बड़े विस्तार से बताया है।जो जीव अपने आठों कर्मों को नष्ट कर देता है।(ज्ञानावरण से अंतराय तक) जो अपनी आत्मा को परमात्मा बना लेता है केवल्य को प्राप्त कर लेता है। वो मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। जिनमत अनुसार हर जीव मोक्ष जाने की शक्ति रखता है।चाहे वो मनुष्य हो या कोई भी जीव पर जाया कैसे जाए ये सबसे बड़ा प्रश्न है???

आइये जानते है मोक्ष के स्वरुप को....
मोक्ष कहा है?

करणानुयोग अनुसार मोक्ष तीन लोक के अग्रभाग अर्थात स्वर्गों से ऊपर लोक के आगे 45 योजन के विस्तार में स्थित है।यहाँ केवल सिद्ध जीव ही रहते है।और एक ही अवस्था में विराजमान है।यहाँ किसी प्रकार का भय दुःख या कोई भी संक्लेश नही है।

मोक्ष कैसा है?

मोक्ष को सिद्धशिला भी कहा जाता है जो अर्धचंद्राकार है अर्थात आधे चंद्रमा के आकार की है।जो की 45 योजन की है।यहाँ कई सिद्ध भगवान विराजमान है।और सब अलग अलग अवगाहना वाले है।

मोक्ष कब होता है?

मोक्ष होना सिर्फ चौथे काल में ही सम्भव है।पंचम काल या कलयुग में मोक्ष सम्भव नही है।

मोक्ष में अनंत सिद्ध है फिर भी जगह का अकाल क्यों नही है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि मोक्ष में कोई भी सिद्ध भगवान सशरीरी नही है।वहां सिर्फ वह ज्ञान शरीरी विराजमान है। और इसी कारण वहां जगह का अभाव नही है।जैसे एक भगवान की अवगाहना 12 योजन है और एक 20 योजन फिर भी वह वहां विराजमान है।

तो आपने जहा मोक्ष के बारे में जैन धर्म अनुसार अगर आपको हमारा पोस्ट अच्छा लगा तो हमे फॉलो करे लाइक करे और शेयर करे।

                 ।।जय जिनेन्द्र।।

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

जिनवाणी स्तुति

दुनिया की हर माँ अपने बेटे को,लोरी सुनाकर सुलाये,
एक है माँ जिनवाणी को लोरी सुनाकर जगाये।
                                  हो रे हो मेरे लाल....(2)

ये दिन कब जायेगा,वो दिन कब आएगा मेरा लाल अँखियाँ खोलेगा होगा दुनिया में शोर मेरे ममता के बोल,मेरा लाल मुख से बोलेगा....आ मेरी गोद में(2)
माँ तुझे तुझसे परिचित कराये, लोरी सुनाकर जगाये।
                                      हो रे हो मेरे लाल....

गोद मेरी मिली आँख तेरी खुली मेरे लाल अब तू सोना न,जन्म लेना नही मृत्यु पाना नहीं मेरे लाल अवसर खोना न,अब बढ़ाना न माँ(2)मौत तुझको कभी भी न आये लोरी सुनाकर जगाये।
                                     हो रे हो मेरे लाल....

रूप ज्ञायक तेरा तुझमे सम्यक भरा मेरे लाल तू शिव साधक है,ये स्वभाव तेरे-तेरे अंदर रहे,मेरे लाल तू आराधक है,मुक्ति तेरी दुल्हन(2)जो स्वयंबर में तुझको बुलाये लोरी सुनाकर जगाये।
                                     हो रे हो मेरे लाल....

सिद्ध बाबा तेरे आप्त तेरे पिता मेरे लाल उनसे मिलना तू, मैं हूँ जिनकी किरण वो है तारण-तरण मेरे लाल उन संग रहना तू, वे स्वयं में रहे(2) तू स्वयं में स्वयं घर बनाये, लोरी सुनाकर जगाये।
                                     हो रे हो मेरे लाल.....

दृष्टि नासाग्र हो भाव वैराग्य हो मेरा नाम त्रिभुवन स्वामी हो,जग में रहता भी हो पर हो जग से अलग मेरा नाम अंतर्यामी हो,है यही भावना लाल बनके तू ऐसा दिखाये,लोरी सुनाकर जगाये।
                                       हो रे हो मेरे लाल....

दुनिया की हर माँ अपने बेटे को लोरी सुनाकर सुलाये,एक है माँ जिनवाणी जो लोरी सुनाकर जगाये।
लोरी सुनाकर जगाये,लोरी सुनाकर जगाये......

                       ।।समाप्त।।
                    ।।जय जिनेन्द्र।।

दुनिया की हर माँ अपने बेटे को -जिनवाणी स्तुति
    

https://youtu.be/5hRaTuEtkqM
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सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

तीर्थंकर परिचय

ऋषभ प्रथम तीर्थंकर जो विश्व के अदिब्रह्म।
दूसरे अजितनाथ तीर्थंकर देव को करू प्रणम्य।।
तीसरे सम्भव नाथ जिनेन्द्र प्रभु को नमन।
अभिनंदन चौथे भगवंत है जिनको करते सब वन्दन।।
पंचम सुमतिनाथ जिनराजा पद्मप्रभु है षष्टम जिनेश।
सप्तम सुपारसनाथ नाथ प्रभु है मैं पूजूँ उनको हरदम।।
अष्टम चंदप्रभु जिन स्वामी मैं पूजूँ वन्दौ मन वच काय।
नवम पुष्पदंत जिन संग दशम शीतलनाथ जी को चितलाय।।
एकादश श्रेयांशनाथ जिन के चरण कमल मन लाय।
वासुपूज्य द्वादश तीर्थंकर विमलनाथ त्रयोदश मन भाय।।
जिन अनंत चौदश तीर्थंकर धर्मनाथ पंद्रस है बताये।
शांतिनाथ सोलह तीर्थंकर कुंथुनाथ सत्रह भगवन है।
अरहेनाथ अष्टादश स्वामी।नवदश मल्लिनाथ जिनराजा मुनिसुव्रत विंशति है कहाय।
है इक्कीसवें नमिनाथ जिन।नेमि बाईसवें शीश नवाये।
पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थंकर। अंतिम वर्धमान कहाय।

इस स्तुति को पढ़ कर चौबीस तीर्थंकर भगवानों के नाम सरलता से याद करे।
                  ।। जय जिनेन्द्र।।

Jinvani Gyanshala

विशिष्ट पोस्ट

बीसवें तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ जी परिचय

बीसवें तीर्थंकर- श्री मुनिसुव्रतनाथ जी चिह्न- कछुआ उत्पन्न काल- 54 लाख 43 हज़ार 400 वर्ष पश्चात कछुआ चिह्न से युक्त जैन धर्म के 20वें तीर्थंक...