शनिवार, 26 मई 2018

                                 ।।सामयिक पाठ।।

प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनोंमें हर्ष प्रभो।
करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥
यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो।
ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥
सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो।
वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥
जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ।
वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥
एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो।
शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥
मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से।
विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥
चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त।
अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥
सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया।
व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किया॥ 8॥
कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया।
पी पीकर विषयों की मदिरा मुझ में पागलपन आया॥ 9॥
मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया।
परनिन्दा गाली चुगली जो मुँह पर आया वमन किया॥ 10॥
निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे।
निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे॥ 11॥
मुनि चक्री शक्री के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे।
गाते वेद पुराण जिसे वह, परम देव मम हृदय रहे॥12॥
दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार हों वमन किये।
परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे॥13॥
जो भव दुख का विध्वंसक है, विश्व विलोकी जिसका ज्ञान।
योगी जन के ध्यान गम्य वह, बसे हृदय में देव महान्॥ 14॥
मुक्ति मार्ग का दिग्दर्शक है, जनम मरण से परम अतीत।
निष्कलंक त्रैलोक्य दर्शी वह देव रहे मम हृदय समीप॥ 15॥
निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे न द्वेष रहे।
शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभावी, परम देव मम हृदय रहे॥ 16॥
देख रहा जो निखिल विश्व को कर्म कलंक विहीन विचित्र।
स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह देव करें मम हृदय पवित्र॥ 17॥
कर्म कलंक अछूत न जिसको कभी छू सके दिव्य प्रकाश।
मोह तिमिर को भेद चला जो परम शरण मुझको वह आप्त॥ 18॥
जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फीका पड़ता सूर्य प्रकाश।
स्वयं ज्ञानमय स्व पर प्रकाशी, परम शरण मुझको वह आप्त॥ 19॥
जिसके ज्ञान रूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ।
आदि अन्तसे रहित शान्तशिव, परम शरण मुझको वह आप्त॥
जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव।
भय विषाद चिन्ता नहीं जिनको, परम शरण मुझको वह देव॥
तृण, चौकी, शिल, शैलशिखर नहीं, आत्म समाधि के आसन।
संस्तर, पूजा, संघ-सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन॥ 22॥
इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, विश्व मनाता है मातम।
हेय सभी हैं विषय वासना, उपादेय निर्मल आतम॥ 23॥
बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं।
यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें॥
अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास।
जग का सुख तो मृग तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ॥ 25॥
अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है।
जो कुछ बाहर है, सब पर है, कर्माधीन विनाशी है॥ 26॥
तन से जिसका ऐक्य नहीं हो, सुत, तिय, मित्रों से कैसे।
चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह रहे कैसे॥ 27॥
महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ, जड़-देह संयोग।
मोक्षमहल का पथ है सीधा, जड़-चेतन का पूर्ण वियोग॥ 28॥
जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़।
निर्विकल्प निद्र्वन्द्व आत्मा, फिर-फिर लीन उसी में हो॥ 29॥
स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते।
करे आप, फल देय अन्य तो स्वयं किये निष्फल होते॥ 30॥
अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी।
पर देता है’ यह विचार तज स्थिर हो, छोड़ प्रमादी बुद्धि॥ 31॥
निर्मल, सत्य, शिवं सुन्दर है, ‘अमितगति’ वह देव महान।
शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण॥ 32॥
दोहा
इन बत्तीस पदों से जो कोई, परमातम को ध्याते हैं।

साँची सामायिक को पाकर, भवोदधि तर जाते हैं॥  

बुधवार, 2 मई 2018

                       ।।श्री मल्लिनाथ चालीसा।।

दोहा:-
परमेष्ठी की भक्ति ही, करती पाप से दूर।
जिनवाणी की आरती, देती सुख भरपूर।।
मल्लिनाथ भगवान के, चरणन शीश झुकाये।
चालीसा मैं नित पढूं रोग शोक नश जाएं।।

चोपाई:-

ज्ञान ज्योति में मेरे जिनवर।
ध्यान मती में मेरे जिनवर।।
मल्लिनाथ जी नाम तुम्हारा।
चरणों में है नमन हमारा।।

सर्वगुणी और अनुपम ज्ञानी।
वाणी आपकी है जिनवाणी।।
मुक्ति सुख का आनन्द लेते।
भक्तों को शुभ ज्ञान भी देते।।

मिथिला नगरी धन्य हो गयी।
रत्नों की वृष्टि भी हो गयी।।
राजा कुम्भ घर शहनाई।
माँ आंगन में बजी बधाई।।

गर्भ, जन्म कल्याणक पाये।
सुर नर मिल उत्सव को गाये।।
खुश हो नाच नाचकर गाये।
तांडव नृत्य भी इंद्र दिखाये।।

बागों में आई फुलवारी।
वृक्ष फलों से लदे थे भारी।।
कोयल मीठे भजन सुनावे।
सबका मन पुलकित हो जावे।।

जिनवर मीठी बोली बोले।
मात- पिता सबका मन डोले।।
मति- श्रुति- अवधि ज्ञान के धारी।
भाव शुद्ध हो आत्मबिहारी।।

आठ वर्ष में अणुव्रत धारे।
सब बालक में वे थे न्यारे।।
आगम के अनुरूप थी चर्या।
चलने में समती थी ईर्या।।

नही किसी को आप सताते।
अच्छी अच्छी बात बताते।।
छोटे से गुरु आप ही लगते।
नर नारी के भाव उमड़ते।।

यौवन की जब बारी आई।
मात पिता ने करी सगाई।।
महलों में हो गयी तैयारी।
मिथिलापुर की शोभा न्यारी।।

किंतु मन वैराग्य समाया।
शादी करना मन न भाया।।
बने दिगम्बर लेली दीक्षा।
क्षणभंगुर सुख तज दी इच्छा।।

जंगल में ही वास बसाया।
आतम में ही ध्यान लगाया।।
मिथिला में आहार किया था।
नन्दीषेण ने पुण्य लिया था।।

कर्म भी डरकर शीघ्र ही भागे।
केवलज्ञान का दीप भी जागे।।
चारों और हुआ उजियाला।
भक्त फेरते आपकी माला।।

इंद्र ने आज्ञा तब कर दीनी।
धनकुबेर रचना कर दीनी।।
दौड़ दौड़कर सुर नर आये।
वीतराग प्रभु की छवि पाये।।

लख मुद्रा मोहित हो जाते।
सूर्य चाँद फीके पड़ जाते।।
दुष्ट कर्म भी पास न आवे।
रोग शोक बीमारी जावे।।

अंधा प्रभु का दर्शन करता।
लँगड़ा भी सीढ़ी चढ़ जाता।।
बेहरा प्रभु की वाणी सुनता।
मिथ्यादृष्टि सिर को धुनता।।

पगले को बुद्धि मिल जाती।
ध्यानी को मुक्ति मिल जाती।।
हम भी प्रभु जी भक्त तुम्हारे।
मिले आपके चरण सहारे।।

भाव विभाव सभी मिट जावे।
मुक्ति पथ पर हम भी जावे।।
क्षणभंगुर सुख की इच्छाएं।
हमको ये संसार घुमाएं।।

बस मन में शांति हो जावे।
हर क्षण तेरा ध्यान लगावे।।
श्री सम्मेद शिखर जा पहुँचे।
बैठे वहां पे आँखे मीचे।।

योगनिरोध से कर्म नशाये।
फिर मुक्ति में वास वसाये।।
परमातम पद आपने पाया।
भक्तों ने है शीश झुकाया।।

चिंतन में प्रभु मेरे रहना।
और नही कुछ तुमसे कहना।।
शुद्ध भाव से तुमको ध्याऊँ।
नित चरणों में शीश झुकाऊँ।।

दोहा:-
चालीसा चालीस दिन, पढ़ना है सुखकार।
रिद्धि सिद्धि समृद्धि हो होवें भव से पार।।
मल्लिनाथ भगवान से, विनती बारम्बार।

दुख संकट मेरे नशे, नमन है शत शत बार।।

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

                        ।। श्री अनन्तनाथ चालीसा।।

अनन्त चतुष्टय धारी ‘अनन्त, अनन्त गुणों की खान “अनन्त’ ।
सर्वशुद्ध ज्ञायक हैं अनन्त, हरण करें मम दोष अनन्त ।
नगर अयोध्या महा सुखकार, राज्य करें सिहंसेन अपार ।
सर्वयशा महादेवी उनकी, जननी कहलाई जिनवर की ।
द्वादशी ज्येष्ठ कृष्ण सुखकारी, जन्मे तीर्थंकर हितकारी ।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर, न्हवन करें मेरु पर जाकर ।
नाम “अनन्तनाथ’ शुभ दीना, उत्सव करते नित्य नवीना ।
सार्थक हुआ नाम प्रभुवर का, पार नहीं गुण के सागर का ।
वर्ण सुवर्ण समान प्रभु का, ज्ञान धरें मति- श्रुत- अवधि का ।
आयु तीस लख वर्ष उपाई, धनुष अर्धशत तन ऊंचाई ।
बचपन गया जवानी आई, राज्य मिला उनको सुखदाई ।
हुआ विवाह उनका मंगलमय, जीवन था जिनवर का सुखमय ।
पन्द्रह लाख बरस बीते जब, उल्कापात से हुए विरक्त तब ।
जग में सुख पाया किसने-कब, मन से त्याग राग भाव सब ।
बारह भावना मन में भाये, ब्रह्मर्षि वैराग्य बढाये ।
“अनन्तविजय” सुत तिलक-कराकर, देवोमई शिविका पधरा कर ।
गए सहेतुक वन जिनराज, दीक्षित हुए सहस नृप साथ ।
द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मास, तीन दिन का धारा उपवास ।
गए अयोध्या प्रथम योग कर, धन्य ‘विशाख’ आहार करा कर ।
मौन सहित रहते थे वन में, एक दिन तिष्ठे पीपल- तल में ।
अटल रहे निज योग ध्यान में, झलके लोकालोक ज्ञान में ।
कृष्ण अमावस चैत्र मास की, रचना हुई शुभ समवशरण की ।
जिनवर की वाणी जब खिरती, अमृत रस कानों को लगती ।
चतुर्गति दुख चित्रण करते, भविजन सुन पापों से डरते ।
जो चाहो तुम मुक्ति पाना, निज आतम की शरण में जाना ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित है, कहे व्यवहार मेँ रतनत्रय हैं ।
निश्चय से शुद्धातम ध्याकर, शिवपद मिलता सुख रत्नाकर ।
श्रद्धा करके भव्य जनों ने, यथाशक्ति व्रत धारे सबने ।
हुआ विहार देश और प्रान्त, सत्पथ दर्शाये जिननाथ ।
अन्त समय गए सम्मेदाचल, एक मास तक रहे सुनिश्चल ।
कृष्ण चैत्र अमावस पावन, मोक्षमहल पहुंचे मनभावन ।
उत्सव करते सुरगण आकर, कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर ।
शुभ लक्षण प्रभुवर का ‘सेही’, शोभित होता प्रभु- पद में ही ।
अरुणा अरज करे बस ये ही, पार करो भवसागर से ही ।
है प्रभु लोकालोक अनन्त, झलकें सब तुम ज्ञान अनन्त ।

हुआ अनन्त भवों का अन्त, अद्भुत तुम महिमा है “अनन्त’ ।

रविवार, 1 अप्रैल 2018

                           ।।श्री अरहनाथ चालीसा।।

दोहा:-
पाँचों ही परमेष्ठी को, वन्दन बारम्बार।
जिनवाणी का ज्ञान ही, जीवन का आधार।।
श्री 'अरह' प्रभु की वन्दना, काटे कर्म क्लेश।
चालीसा पढ़कर मिले, सच्चा आतम भेष।।

चौपाई:-
सिद्धो की श्रेणी में रहते, 
सिद्ध प्रभु हम आपको कहते।
आठों कर्मों को नाशा है,
सिद्धालय में ही वासा है।।

भक्तों के आराध्य आप हो,
भक्तों के भी साध्य आप हो।
साधन है 'अरह' नाम तुम्हारा,
मुक्ति का मिल जाये किनारा।।

नम्रीभूत जगत है सारा,
वन्दन करता बारम्बारा।
सोमवंश में जन्म है पाया,
मित्रसेना को माँ बतलाया।।

पिता सुदर्शन सम्यग्दृष्टि,
महल में होती रत्न की वृष्टि।
सोलह शुभ सपने लख माँ ने,
तीर्थंकर के जन्म को पाने।।

चहुँ दिश निर्मल वायु बहती,
छह ऋतुएँ भी संग- संग रहती।
सब प्राणी के मन खुशहाली,
पूर्व दिशा में आई लाली।।

इन्द्रों संग सुर भू पर आये,
कल्याणक खुशियाँ बरसाये।
लक्ष्मी ने आ डाला डेरा,
सबके दुर्दिन को है फेरा।।

तीर्थंकर की महिमा गाई,
बस 'अर' प्रभु का नाम सहाई।
जब यौवन का मौसम आया,
कन्यायों को फिर परिणाया।।

राज्य पिता ने तुमको दीना,
न्याय से प्रभु ने कार्य को कीना।
चक्ररत्न ने स्वामी माना,
चक्रवर्ती बन विजय को जाना।।

षटखण्ड राजा शरण में आये,
आज्ञा को सिर माथ चढाये।
स्वप्न में भी खुद पास न आता,
जोड़ा फिर आतम से नाता।।

कामदेव पदवी के धारी,
किससे उपमा करें तुम्हारी।
देख सभी मोहित हो जाते,
बात कोई वे सोच न पाते।।

शरद ऋतु के बादल देखे,
फटे हुए थे कारण लेखे।
क्षणभंगुर संसार को जाना,
पहना फिर वैराग्य का बाना।।

कुम्भकार सम चक्र को छोड़ा,
गृहलक्ष्मी से नाता तोड़ा।
दीक्षा ले संयम को धारा,
नश्वर सुख को दिया किनारा।।

पँचमुष्ठी केशलोंच किया था,
आतम निज में लीन किया था।
एक सहज राजा संग आये,
दीक्षा ले संग ध्यान लगाये।।

तप अग्नि में कर्म जलाये,
केवलज्ञान का दीप जलाये।
देवों ने आ पूजा कीनी,
समवशरण रचना कर दीनी।।

भक्तों को स्थान मिला था,
भक्त हृदय भी शीघ्र खिला था।
जिनवरमुद्रा पाठ पढ़ाती,
ज्ञान- ध्यान की याद दिलाती।।

जिस- जिस ने प्रभु नाम लिया था,
उसका बेड़ापार हुआ था।
चार गति से हमें छुड़ाओ,
जग दुखों से हमें बचाओ।।

कर्म-बन्ध ढीले हो जाये,
तब ही प्रभु हम शरण में आये।
सच्चे हृदय से भक्ति करेंगे,
मन से प्रभुजी जाप करेंगे।।

पापकर्म से दूर हटेंगे,
क्रोध मान से दूर रहेंगे।
भक्ति का पथ हमको प्यारा,
क्षणभंगुर सुख इससे हारा।।

ज्ञान किरण हमको दिखला दो,
मुक्ति का रस्ता बतला दो।
ज्ञानामृत का भोजन पाऊँ,
और अमर इससे हो जाऊँ।।

श्री सम्मेद शिखर मन भाया,
वहाँ से मुक्ति को पडराया।
बार- बार मैं अरज करूँगा,
चरण आपके सदा रहूँगा।।

दोहा:-
चालीसा चालीस दिन, पढ़ना है सुखकार।
रिद्धि- सिद्धि मंगल करें, होवें भव से पार।।
श्री 'अर' प्रभु के चरण में, वन्दन शत-शत बार।

सबकी विपदायें हरो, विनती बारम्बार।।

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

                         ।।श्री विमलनाथ चालीसा।।

सिद्ध अनन्तानन्त नमन कर, सरस्वती को मन में ध्याय ।।
विमलप्रभु क्री विमल भक्ति कर, चरण कमल में शीश नवाय ।।
जय श्री विमलनाथ विमलेश, आठों कर्म किए नि:शेष ।।
कृतवर्मा के राजदुलारे, रानी जयश्यामा के प्यारे ।।
मंगलीक शुभ सपने सारे, जगजननी ने देखे न्यारे ।।
शुक्ल चतुर्थी माघ मास की, जन्म जयन्ती विमलनाथ की ।।
जन्योत्सव देवों ने मनाया, विमलप्रभु शुभ नाम धराया ।।
मेरु पर अभिषेक कराया, गन्धोंदक श्रद्धा से लगाया ।।
वस्त्राभूषण दिव्य पहनाकर, मात-पिता को सौंपा आकर ।।
साठ लाख वर्षायु प्रभु की, अवगाहना थी साठ धनुष की ।।
कंचन जैसी छवि प्रभु- तन की, महिमा कैसे गाऊँ मैं उनकी ।।
बचपन बीता, यौवन आया, पिता ने राजतिलक करवाया ।।
चयन किया सुन्दर वधुओं का, आयोजन किया शुभ विवाह का ।।
एक दिन देखी ओस घास पर, हिमकण देखें नयन प्रीतिभर ।।
हुआ संसर्ग सूर्य रश्मि से, लुप्त हुए सब मोती जैसे ।।
हो विश्वास प्रभु को कैसे, खड़े रहे वे चित्रलिखित से ।।
“क्षणभंगुर है ये संसार, एक धर्म ही है बस सार ।।
वैराग्य हृदय में समाया, छोडे क्रोध -मान और माया ।।
घर पहुँचे अनमने से होकर, राजपाट निज सुत को देकर ।।
देवीमई शिविका पर चढ़कर, गए सहेतुक वन में जिनवर ।।
माघ मास-चतुर्थी कारी, “नम: सिद्ध” कह दीक्षाधारी ।।
रचना समोशरण हितकार, दिव्य देशना हुई सुरवकार ।।
उपशम करके मिथ्यात्व का, अनुभव करलो निज आत्म का ।।
मिथ्यात्व का होय निवारण, मिटे संसार भ्रमण का कारणा ।।
बिन सम्यक्तव के जप-तप-पूजन, विष्फल हैँ सारे व्रत- अर्चन ।।
विषफल हैं ये विषयभोग सब, इनको त्यागो हेय जान अब ।।
द्रव्य- भाव्-नो कमोदि से, भिन्न हैं आत्म देव सभी से ।।
निश्चय करके हे निज आतम का, ध्यान करो तुम परमात्म का ।।
ऐसी प्यारी हित की वाणी, सुनकर सुखी हुए सब प्राणी ।।
दूर-दूर तक हुआ विहार, किया सभी ने आत्मोद्धारा ।।
‘मन्दर’ आदि पचपन गणधर, अड़सठ सहस दिगम्बर मुनिवर ।।
उम्र रही जब तीस दिनों क, जा पहुँचे सम्मेद शिखर जी ।।
हुआ बाह्य वैभव परिहार, शेष कर्म बन्धन निरवार ।।
आवागमन का कर संहार, प्रभु ने पाया मोक्षागारा ।।
षष्ठी कृष्णा मास आसाढ़, देव करें जिनभवित प्रगाढ़ ।।
सुबीर कूट पूजें मन लाय, निर्वाणोत्सव को’ हर्षाय ।।
जो भवि विमलप्रभु को ध्यावें। वे सब मन वांछित फल पावें ।।
‘अरुणा’ करती विमल-स्तवन, ढीले हो जावें भव-बन्धन ।।

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

                       ।।गोम्मटेश भजन।।

होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे...... 2

कौन सा देश, कहाँ के राजा, कौन पिता कहलाय...2
कौन मात के जाय बाहुबली, होली खेले रे...
                           महल में होली खेले रे...2
   होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

भारत देश में राज्य अयोध्या, ऋषभनाथ सुत पाय,
मात सुनन्दा जाय बाहुबली, होली खेले रे...
                           महल में होली खेले रे...2
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

चंदा सूरज सी छवि जिनकी, क्या क्या नाम धराये,
करत कलोल महल में दोनों सब मन भाय रे...2
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

भरत बड़े, बाहुबली छोटे, नाम जगत में पायें... 2
दो बहनों संग दोनों भैया होली खेले रे...
                        महल में होली खेले रे....
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

कालचक्र की गति है न्यारी, ऋषभ भये वैरागी,
वेष दिगम्बर धार करम संग होली खेले रे...
                    भरत संग होली खेले रे...
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

कर्म काट शिवपुर को ध्याये, तीर्थंकर पद पाये...2
आदिनाथ से पूर्व बाहुबली मुक्ति पाये रे....
                    केवली प्रथम कहाये रे....
होली खेले युवराज बाहुबली, होली खेले रे...
                           भरत संग होली खेले रे......2

गुरुवार, 22 मार्च 2018

               ।।श्री सम्भवनाथ चालीसा।।

दोहा:-
श्री जिनदेव को करके वंदन, जिनवानी को मन में ध्याय ।
काम असम्भव कर दे सम्भव, समदर्शी सम्भव जिनराय ।।

चोपाई:-
जगतपूज्य श्री सम्भव स्वामी । तीसरे तीर्थकंर है नामी ।।
धर्म तीर्थ प्रगटाने वाले । भव दुख दुर भगाने वाले ।।
श्रावस्ती नगरी अती सोहे । देवो के भी मन को मोहे ।।
मात सुषेणा पिता दृडराज । धन्य हुए जन्मे जिनराज ।।
फाल्गुन शुक्ला अष्टमी आए । गर्भ कल्याणक देव मनाये ।।
पूनम कार्तिक शुक्ला आई । हुई पूज्य प्रगटे जिनराई ।।
तीन लोक में खुशियाँ छाई । शची पर्भु को लेने आई ।।
मेरू पर अभिषेक कराया । सम्भवपर्भु शुभ नाम धराया ।।
बीता बचबन यौवन आया । पिता ने राज्यभिषेक कराया ।।
मिली रानियाँ सब अनुरूप । सुख भोगे चवालिस लक्ष पूर्व ।।
एक दिन महल की छत के ऊपर । देख रहे वन-सुषमा मनहर ।।
देखा मेघ – महल हिमखण्ड । हुआ नष्ट चली वासु प्रचण्ड ।।
तभी हुआ वैराग्य एकदम । गृहबन्धन लगा नागपाश सम ।।
करते वस्तु-स्वरूप चिन्तवन । देव लौकान्तिक करें समर्थन ।।
निज सुत को देकर के राज । वन को गमन करें जिनराज ।।
हुए स्वार सिद्धार्थ पालकी । गए राह सहेतुक वन की ।।
मंगसिर शुक्ल पूर्णिमा प्यारी । सहस भूप संग दीक्षा धारी ।।
तजा परिग्रह केश लौंच कर । ध्यान धरा पूरब को मुख कर ।।
धारण कर उस दिन उपवास । वन में ही फिर किया निवास ।।
आत्मशुद्धि का प्रबल प्रणाम । तत्क्षण हुआ मनः पर्याय ज्ञान ।।
प्रथमाहार हुआ मुनिवर का । धन्य हुआ जीवन सुरेन्द्र का ।।
पंचाश्चर्यो से देवो के । हुए प्रजाजन सुखी नगर के ।।
चौदह वर्ष की आत्म सिद्धि । स्वयं ही उपजी केवल ऋद्धि ।।
कृष्ण चतुर्थी कार्तिक सार । समोशरण रचना हितकार ।।
खिरती सुखकारी जिनवाणी । निज भाषा में समझे प्राणी ।।
विषयभोग हैं भोगों से । काया घिरती है रोगो से ।।
जिनलिंग से निज को पहचानो । अपना शुद्धातम सरधानो ।।
दर्शन-ज्ञान-चरित्र बतावे । मोक्ष मार्ग एकत्व दिखाये ।।
जीवों का सन्मार्ग बताया । भव्यो का उद्धार कराया ।।
गणधर एक सौ पाँच प्रभु के । मुनिवर पन्द्रह सहस संघ के ।।
देवी – देव – मनुज बहुतेरे । सभा में थे तिर्यंच घनेरे ।।
एक महीना उम्र रही जब । पहुँच गए सम्मेद शिखर तब ।।
अचल हुए खङगासन में प्रभु । कर्म नाश कर हुए स्वयम्भु ।।
चैत सुदी षष्ठी था न्यारी । धवल कूट की महिमा भारी ।।
साठ लाख पूर्व का जीवन । पग में अश्व का था शुभ लक्षण ।।

दोहा:-
चालीसा श्री सम्भवनाथ, पाठ करो श्रद्धा के साथ ।
मनवांछित सब पूरण होवे, जनम – मरन दुख खोवे ।।

मंगलवार, 13 मार्च 2018

                  ।।गोम्मटेश भजन।।

हे सर्वत्यागी, हे वीतरागी,
हे गोम्मटेशं तुभ्यं नमोस्तु।

हे आदिपुत्रं हे ज्ञानवृत्तम
हे जगहितेशं तुभ्यं नमोस्तु।

हे नीलकमलं हे वर्णविमलं
हे श्यामकेशं तुभ्यं नमोस्तु।

हे धनुषभृकुटि हे शान्तनयनं
हे दृष्टि नासा तुभ्यं नमोस्तु।

हे मौनअधरं हे लम्बकर्णम्
हे दिव्य ग्रीवा तुभ्यं नमोस्तु।

हे विंध्यवासी घट घट प्रवासी
न रागिद्वेषम तुभ्यं नमोस्तु।

हे मात कालल के वीर बालक
चामुंडरायं तुभ्यं नमोस्तु।

हे नेमिचन्द्रम जिन चन्द्रस्वामी
हे विंध्य गिरिवर तुभ्यं नमोस्तु।

हे प्रतिमा योगी हे कामदेवं
हे पुण्यशाली तुभ्यं नमोस्तु।

हे निर्विकारी वैराग्यधारी
मुद्रा तुम्हारी तुभ्यं नमोस्तु।

हे नाथ नारायण वासुदेवं
हे सर्वपूज्यम तुभ्यं नमोस्तु।

हे विंध्य गिरी पर प्रतिमा तुम्हारी
अप लख निहारी तुभ्यं नमोस्तु।

जय जय जय जय गोम्मटेशं......

सोमवार, 12 मार्च 2018

                        ।।श्री शान्तिनाथ चालीसा।।

दोहा:-
परमेष्ठी जिनधर्म जिन आगम मंगलकार।
जिन चैत्यालय चैत्य को वन्दन बारम्बार।।
शान्तिनाथ भगवान के करते चरण प्रणाम।
चालीसा गाते यहाँ पाने निज का धाम।।

चौपाई:-
जम्बूद्वीप में क्षेत्र बताया,
भरत क्षेत्र अनुपम कहलाया।
भारत देश रहा शुभकारी,
जिसकी महिमा जग से न्यारी।।

नगर हस्तिनापुर के स्वामी,
विश्वसेन राजा थे नामी।
रानी एरादेवी पाये,
जिनके सुत शांति जिन गाये।।

माँ के गर्भ में प्रभु जब आये,
रत्नवृष्टि तब देव कराये।
भादव कृष्ण सप्तमी जानो,
शुभ नक्षत्र भरणी पहचानो।।

ज्येष्ठ कृष्ण चौदस शुभकारी,
मेष राशि जानो मनहारी।
जन्म प्रभुजी ने जब पाया,
देवराज ऐरावत लाया।।

शची ने प्रभु को गोद उठाया,
फिर ऐरावत पर बैठाया।
पाण्डुक वन अभिषेक कराया,
सहस्त्र नेत्र से दर्शन पाया।।

पग में हिरण चिह्न शुभ गाया,
शान्तिनाथ तब नाम बताया।
पंचम चक्रवर्ती कहलाए,
कामदेव बारहवें गाए।।

तीर्थंकर सोलहवें जानो,
यथा नाम गुणकारी मानो।
नवनिधियों के स्वामी गाए,
चौदह रत्न श्रेष्ठ बतलाये।।

सहस्त्र छियानवें रानी पाये,
छह खण्डों पर राज्य चलाये।
सूर्यवंश के स्वामी गाये,
सारे जग में यश फैलाये।।

जातिस्मरण प्रभु को आया,
महाव्रतों को प्रभु ने पाया।
एक लाख राजा संग आये,
साथ में प्रभु के दीक्षा पाये।।

ज्येष्ठ कृष्ण चौदस तिथि जानो,
तप कल्यायक प्रभु का मानो।
आत्मध्यान कीन्हें तब स्वामी,
किये निर्जरा अन्तर्यामी।।

पौष सुदी दशमी शुभ आई,
केवलज्ञान की ज्योति जगाई।
समवशरण आ देव बनाये,
प्रभु की जय- जयकार लगाये।।

दिव्य देशना आप सुनाये,
धर्म ध्वजा जग में फहराये।
छत्तिस गणधर प्रभुजी पाये,
प्रथम गणि चक्रायुध गाये।।

यक्ष गरुड़ जानो तुम भाई,
यक्षी श्रेष्ठ मानसी गाई।।
योगनिरोध किये जगनामी,
गुण अनन्त पाए जिनस्वामी।।

नौ सौ मुनि श्रेष्ठ बतलाये,
साथ में प्रभु के मुक्ति पाये।
महामोक्ष फल तुमने पाया,
शिवपुर अपना धाम बनाया।।

कूट कुंदप्रभ जानो भाई,
कायोत्सर्गासन शुभ गाई।
जग में कई जिनबिम्ब निराले,
अतिशय श्रेष्ठ दिखाने वाले।।

आहार क्षेत्र बानपुर जानो,
वीना वाराह भी पहचानो।
रामटेक सीरोन कहाया,
खजुराहो पचराई गाया।।

गाँव- गाँव में बिम्ब बताये,
गिनती कहो कौन कर पाये।
जो भी अर्चा करते भाई,
अर्चा होती है फलदायी।।

कई लोगों ने शुभ फल पाये,
रोग- शोक दारिद्र नशाये।
शान्तिनाथ शान्ति के दाता,
तीनलोक में भाग्यविधाता।।

भावसहित प्रभु को जो ध्याये,
इच्छित वर वह मानव पाये।
पूजा अर्चा कर जो ध्यावें,
सुख शांति सौभग्य जगावें।।

निज आतम का वैभव पावें,
अनुक्रम से फिर शिवपुर जावें। - 2

दोहा:-
चालीसा चालीस दिन, पढ़े भाव के साथ।
सुख शान्ति आनन्द पा, बने श्री का नाथ।।
दीन- दरिद्री होये जो, या हो पुत्र विहीन।

सुत पावें सुख- सम्पदा, होवें ज्ञान प्रवीण।।

बुधवार, 7 मार्च 2018

                             ।।देव स्तुति।।

वीतराग सर्वज्ञ हितंकर भविजन की अब पूरो आस |
ज्ञान भानु का उदय करो मम मिथ्यातम का होय विनाश ॥
जीवों की हम करुणा पाले, झूठ वचन नहीं कहें कदा |
परधन कबहूँ न हरहूँ स्वामी, ब्रह्मचर्य व्रत रखें सदा ॥
तृष्णा लोभ बढ़े न हमारा, तोष सुधा निधि पिया करें |
श्री जिनधर्म हमारा प्यारा उसकी सेवा किया करें |
दूर भगावें बुरी रीतियाँ, सुखद रीति का करें प्रचार |
मेल-मिलाप बढ़ावे हम सब, धर्मोन्नति का करें प्रचार ॥
सुख-दुख में हम समता धारे, रहे अचल जिमि सदा अटल |
न्याय मार्ग का लेश न त्यागें, वृद्धि करें निज आतम बल ॥
अष्ट करम जो दुःख हेतु हैं, उनके क्षय का करें उपाय |
नाम आपका जपें निरन्तर, विघ्न शोक सब ही टल जाय ॥
आतम शुद्ध हमारा होवे, पाप मैल नहीं चढ़ें कदा |
विद्या की हो उन्नति हममें, धर्म ज्ञान हूँ बढ़े सदा |
हाथ जोड़कर शीश नवावें, तुमको भविजन खड़े-खड़े |
य सब पूरो आश हमारी चरण-शरण में आन पड़े ॥

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

               ।।श्री पुष्पदन्तनाथ आरती।।

ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी, प्रभु जय पुष्पदन्त स्वामी।
आरती तुमरी उतारूँ, हो अन्तर्यामी।।
                        ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी... 2

जयरामा है मात आपकी, पितु सुग्रीव कहाय।
क्षत्रिय कुल इक्ष्वाकु वंश में, काश्यप गोत्र सुहाय।।
                                ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

काकन्दी नगरी में जन्में, वैभव था भारी।
राज्य त्याग कर सहस्त्र नृपति संग, मुनि दीक्षा धारी।।
                              ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

उल्कापात देख कर प्रभु ने, अथिर लखा संसार।
भये दिगम्बर करि तपस्या, राग- द्वेष को टार।।
                                ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

श्री सम्मेद शिखर से प्रभु जी, आप गए निर्वाण।
भादव सुदी अष्टमी के दिन, पाया मोक्ष महान।।
                                  ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

सुविधिनाथ भी नाम तुम्हारा, भक्तों के मन भाय।
तिरे आप जग जन को तारा,तारण-तरण कहाय।।
                                  ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

पद्मासन में आप विराजे, नासा दृष्टि सुहाय।
अतिशयकारी अति मनोज्ञ तुम, सौम्य मूर्ति सुखदाय।।
                             ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

सवा लाख जो जाप जपे प्रभु, मनवांच्छित फल पाय।
सेवक शरण तुम्हारी आया, चरणों शीश नवाय।।
                            ॐ जय पुष्पदन्त स्वामी...

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

                     ।।मल्लिनाथ चालीसा।।

दोहा :-
मल्लिनाथ महाराज का, चालीसा मनहार।
चालीस दिन तुम नियम से, पढ़िये चालीस बार।।
दर्शन को चलते समय, करिये इसका पाठ।
दुख- चिन्ता, बाधा मिटे, उपजै 'सुमत' विचार।।

चौपाई :-

जय श्री मल्लिनाथ जिनराजा,
मिथिला नगरी के महाराजा।
पिता कुम्भ प्रभावित माता,
इक्ष्वाकु कुल जग विख्याता।।

तज कर शादी की तैयारी,
आकर दीक्षा वन में धारी।
अथिर असार समझ जग माया,
राजकुमार त्याग मन भाया।।

ऐसा तुमने ध्यान लगाया,
केवलज्ञान छठें दिन पाया।
ऊँचा पच्चीस धनुष वदन था,
चिह्न कलश का रंग स्वर्ण था।।

दिए उपदेश महान निरन्तर,
समवशरण में अठाईस गणधर।
आयु पचपन सहस्र साल की,
बीती परहित दीनदयाल की।।

करते हुए हितकार हितंकर,
समवशरण आया हस्तिनापुर।
बनी याद में निशियाँ उनकी,
दे शिवधाम वन्दना जिनकी।।

धन्य- धन्य श्री मल्लि जिनेश्वर,
मुक्ति गए सम्मेद शिखर पर।
पहली निशियाँ शान्तिनाथ की,
दूजी निशियाँ कुंथुनाथ की।।

तीजी निशियाँ अरहनाथ की,
चौथी निशियाँ मल्लिनाथ की।
गए जिनको द्रव्य चढ़ावे,
सोलह शुद्ध भावना भावें।।

अजब विशाल है मन्दिर मनहित,
चार जगह प्रतिमा स्थापित।
मानस्तम्भ बने द्वार पर,
बिम्ब विराजे चौमुख जिसपर।।

बीते छह माह करत विहारा,
मिला ठीक तब प्रथम अहारा।
यही दियो श्रेयांस राव ने,
यही लियो रस आदिनाथ ने।।

कष्ट सात सौ मुनि पर आया,
आकर विष्णुकुमार हटाया।
पांडव दो एक भव शिव लीनो,
बाकी चर्म शरीरों तीनो।।

यही द्रौपदी चीर बढ़े थे,
कौरव- पांडव राज किये थे।
मेरठ जिला श्री हस्तिनापुर,
आते-जाते निशदिन मोटर।।

बना गुरुकुल सबसे अच्छा,
सभी तरह की मिलती शिक्षा।
स्वच्छ सदाचारी वो रहकर,
ज्ञानी गुणी बने पढ़- पढ़कर।।

होती रहती शास्त्र सभाएँ,
जाती रहती मन शंकाएँ।
ब्रह्मचारी त्यागी गृहस्थी जन,
करें करायें आत्म चिंतवन।।

उत्तम छह हो धर्मशालायें,
नर- नारी रहकर सुख पायें।
बिजली लगे नल जल के,
सुन्दर पौधे मीठे फल के।।

करें प्रबन्ध मंत्रीजी मैनेजर,
पढ़े अधिक छवि महोत्सवों पर।।
जेठ व कार्तिक निर्वाण के,
लड्डू चढ़ते शान्तिवीर के।।

आये हज़ारो बहना- भाई,
आते जब दिन पर्व अठाई।
मेला हो कार्तिक में भारी,
चीज़ मिले बाजार में सारी।।

लाता सुमत सदा से पुस्तक,
सर्वोपयोगी धर्म प्रचारक।
दर्शन पूजन भजन आरती,
कर- कर होते मुद्रित यात्री।।

परिग्रह त्याग त्याग मन भरते,
गुण अपने अवलोकन करते।
मानव धर्म मिला उपयोगी,
मत करना ये विषयन भोगी।।

तरुषायी मत व्यर्थ लुटाना,
वृद्धावस्था मत दुख उठाना।
उत्तमोत्तम ये भरी जवानी,
निश्चय यही सकल लसानी।

करना मत अपनी मनमानी,
अच्छी इच्छायें मन में लानी।
रत्नत्रय दश धर्म सुहाना,
धर्म- कर्म नित सुमत निभाना।।

रविवार, 11 फ़रवरी 2018

                ।।श्री पुष्पदन्तनाथ चालीसा।।

दोहा:-
पुष्पदन्त भगवान को, ध्याऊं मन-वच- काय।
हरे चतुर्गति दुःख को, देय सिद्धि सुखदाय।।

चौपाई:-
जय श्री पुष्पदन्त जिन स्वामी,
हो तुम तीन जगत में नामी।
हो चिद्रूप चिदानन्द प्यारे,
तीन लोक त्रयकाल तुम्हारे।।

सुगुण छियालीस के भंडारी,
और अनन्त गुणों के धारी।
मूर्ति आपकी है अतिसुन्दर,
हरदम दृष्टि रहे नासा पर।।

अपराजित विमान के चयकर,
आये आप गुणों के सागर।
पन्द्रह मास रतन बरसे थे,
नर- नारी सब ही हरषे थे।।

सोलह स्वप्ने माता देखे,
पिछले पहर मनोहर पेखे।
काकन्दी नगरी सुखकारी,
प्रभु तुम हुए वहाँ अवतारी।।

जब प्रभुजी की जन्म घड़ी थी,
नरकों में शांति पड़ी थी।
श्री सुग्रीव है पिता तुम्हारे,
रामा की आँखों के तारे।।

पूज्य पिता फूले न समाय,
याचक को बहुदान लुटाय।
देवों ने सुर गिरी ले जाकर,
नव्हन किया बहु भक्ति बढ़ाकर।।

सुरपति सहस नयन धरि देखे,
तो भी तृप्त मन नही लेखे।
आयु मिली दो लाख पूर्व की,
पर विषय में नही पूर्ण की।।

उल्कापात देख कर स्वामी,
झट वैराग्य हुआ जगनामी।
जग के भोग रोग सम जाने,
ममता तज समता में आने।।

लौकांतिक देवों ने आकर,
की स्तुति निज शीश नवाकर।
सारे राज- पाट को तज के,
तप करने को वन में पहुँचे।।

सहस नृपति प्रभु आप संग थे,
तप धारण कर आत्ममग्न थे।
अगहन सुदी की पड़वा भारी,
तुमने मुनिपद दीक्षा धारी।।

नमः सिद्ध कह मुनिव्रत लीन्हा,
पंचमुष्ठी से लोंच जु कीन्हा।
तप कर केवलज्ञान उपाया,
कार्तिक सुदी दोज कहलाया।।

समवशरण धनपति ने कीन्हा,
योजन आठ प्रमाणित चीन्हा।
अठ्ठासी गणधर कहलाये,
केवलज्ञान महानिधि पाये।।

तीन छत्र सिर ऊपर सोहे,
भामण्डल पीछे मन मोहे।
धर्मामृत जिन जग बरसाया,
भविजीवों को बोध कराया।।

फिर सम्मेद शिखर पर आकर,
चार अघाति कर्म नशाकर।
भादव सुदी अष्टमी आयी,
प्रभु ने मोक्ष वहाँ पर पायी।।

तीनलोक के नाथ कहाय,
अविनाशी शिवसुख को पाय।
प्रतिमा श्वेत वर्ण मन भावे,
देखत पाप तिमिर नश जावे।।

चिह्न मगर युत छवि अतिसोहे,
सुर नर असुर नयन मन मोहे।
प्रभु को वीतराग छवि लखकर,
राग- द्वेष सब होय विनश्वर।।

अतिशय पुष्पदन्त का भारी,
आकर देखे सब नर- नारी।
दर्शन से अब भय भग जाते,
रोग मरी संकट टल जाते।।

तुम प्रभु रक्षा सबकी करते,
जग जन की सब पीड़ा हरते।
दीन दुःखी असमर्थ दरिद्री,
विघ्न नशत सुख होय समृद्धि।।

भक्ति भाव से जो नित ध्यावें,
वह प्राणी दुर्गति नही पावें।
जाप जपे जो सन्मुख जाई,
शांति प्राप्त कर आत्म लखाई।।

कृपासिन्धु से कुछ नही चाहूँ,
रत्नत्रय धारण कर पाऊँ।
'मनो' भावना पूरी स्वामी,
मोक्ष रमा पाऊँ शिवगामी।।

दोहा:-
किस विधि गुण वर्णन करूँ, पुष्पदन्त भगवान।
महामोक्ष फल दीजिये, यही अरज गुणखान।।

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

                ।।श्री चन्द्रप्रभ चालीसा।।

दोहा:-
वीतराग सर्वज्ञ जिन, जिन वाणी को ध्याय ।
लिखने का साहस करुं, चालीसा सिर नाय।।
देहरे के श्रीचन्द्र को, पूजौं मन वच काय।
ऋद्धि सिद्धि मंगल करें, विघ्न दूर हो जाय।।

चौपाई:-
जय श्रीचन्द्र दया के सागर, देहरे वाले ज्ञान उजागर।
शांति छवि मूरति अति प्यारी,भेष दिगम्बर धारा भारी।।
नासा पर है दृष्टि तुम्हारी, मोहनी मूरति कितनी प्यारी।
देवों के तुम देव कहावो, कष्ट भक्त के दूर हटावो।।
समन्तभद्र मुनिवर ने ध्याया, पिंडी फटी दर्श तुम पाया।
तुम जग में सर्वज्ञ कहावो, अष्टम तीर्थंकर कहलावो।।
महासेन के राजदुलारे, मात सुलक्षणा के हो प्यारे।
चन्द्रपुरी नगरी अति नामी, जन्म लिया चन्द्र-प्रभ स्वामी।।
पौष वदी ग्यारस को जन्मे, नर नारी हरषे तब मन में।
काम क्रोध तृष्णा दुखकारी, त्याग सुखद मुनि दीक्षा धारी।।
फाल्गुन वदी सप्तमी भाई, केवल ज्ञान हुआ सुखदाई।
फिर सम्मेद शिखर पर जाके, मोक्ष गये प्रभु आप वहां से।।
लोभ मोह और छोड़ी माया, तुमने मान कषाय नसाया।
रागी नहीं, नहीं तू द्वेषी, वीतराग तू हित उपदेशी।।
पंचम काल महा दुखदाई, धर्म कर्म भूले सब भाई।
अलवर प्रान्त में नगर तिजारा, होय जहां पर दर्शन प्यारा।।
उत्तर दिशि में देहरा माहीं, वहां आकर प्रभुता प्रगटाई।
सावन सुदि दशमि शुभ नामी, प्रकट भये त्रिभुवन के स्वामी।।
चिह्न चन्द्र का लख नर नारी, चंद्रप्रभु की मूरती मानी।
मूर्ति आपकी अति उजयाली, लगता हीरा भी है जाली।।
अतिशय चन्द्र प्रभु का भारी, सुनकर आते यात्री भारी।
फाल्गुन सुदी सप्तमी प्यारी, जुड़ता है मेला यहां भारी।।
कहलाने को तो शशि धर हो, तेज पुंज रवि से बढ़कर हो।
नाम तुम्हारा जग में सांचा, ध्यावत भागत भूत पिशाचा।।
राक्षस भूत प्रेत सब भागें, तुम सुमिरत भय कभी न लागे।
कीर्ति तुम्हारी है अति भारी, गुण गाते नित नर और नारी।।
जिस पर होती कृपा तुम्हारी, संकट झट कटता ही भारी।
जो भी जैसी आश लगाता, पूरी उसे तुरत कर पाता।।
दुखिया दर पर जो आते हैं, संकट सब खो कर जाते हैं।
खुला सभी हित प्रभु द्वार है, चमत्कार को नमस्कार है।।
अन्धा भी यदि ध्यान लगावे, उसके नेत्र शीघ्र खुल जावें।
बहरा भी सुन लग जावे, पगले का पागलपन जावे।।
अखंड ज्योति का घृत जो लगावे संकट उसका सब कट जावे।
चरणों की रज अति सुखकारी, दुख दरिद्र सब नाशनहारी।।
चालीसा जो मन से ध्यावे, पुत्र पौत्र सब सम्पति पावे।
पार करो दुखियों की नैया, स्वामी तुम बिन नहीं खिवैया।।
प्रभु मैं तुम से कुछ नहिं चाहूं, दर्श तिहारा निश दिन पाऊँ।

दोहा:-
करुं वन्दना आपकी, श्री चन्द्रप्रभु जिनराज।
जंगल में मंगल कियो, रखो हमारी लाज।।

बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन को, करुं प्रणाम |उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ||सर्व साधु और सरस्वती जिन मन्दिर सुखकार |आदिनाथ भगवान को मन मन्दिर में धार ||
-: चौपाई :-
जै जै आदिनाथ जिन स्वामी, तीनकाल तिहूं जग में नामी |
वेष दिगम्बर धार रहे हो, कर्मों को तुम मार रहे हो ||
हो सर्वज्ञ बात सब जानो सारी दुनियां को पहचानो |
नगर अयोध्या जो कहलाये, राजा नाभिराज बतलाये ||
मरुदेवी माता के उदर से, चैत वदी नवमी को जन्मे |
तुमने जग को ज्ञान सिखाया, कर्मभूमी का बीज उपाया ||
कल्पवृक्ष जब लगे बिछरने, जनता आई दुखड़ा कहने |
सब का संशय तभी भगाया, सूर्य चन्द्र का ज्ञान कराया ||
खेती करना भी सिखलाया, न्याय दण्ड आदिक समझाया |
तुमने राज किया नीति का, सबक आपसे जग ने सीखा ||
पुत्र आपका भरत बताया, चक्रवर्ती जग में कहलाया |
बाहुबली जो पुत्र तुम्हारे, भरत से पहले मोक्ष सिधारे ||
सुता आपकी दो बतलाई, ब्राह्मी और सुन्दरी कहलाई |
उनको भी विद्या सिखलाई, अक्षर और गिनती बतलाई ||
एक दिन राजसभा के अन्दर, एक अप्सरा नाच रही थी |
आयु उसकी बहुत अल्प थी, इसीलिए आगे नहीं नाच रही थी ||
विलय हो गया उसका सत्वर, झट आया वैराग्य उमड़कर |
बेटों को झट पास बुलाया, राज पाट सब में बंटवाया ||
छोड़ सभी झंझट संसारी, वन जाने की करी तैयारी |
राव (राजा) हजारों साथ सिधाए, राजपाट तज वन को धाये ||
लेकिन जब तुमने तप किना, सबने अपना रस्ता लीना |
वेष दिगम्बर तजकर सबने, छाल आदि के कपड़े पहने ||
भूख प्यास से जब घबराये, फल आदिक खा भूख मिटाये |
तीन सौ त्रेसठ धर्म फैलाये, जो अब दुनियां में दिखलाये ||
छैः महीने तक ध्यान लगाये, फिर भोजन करने को धाये |
भोजन विधि जाने नहिं कोय, कैसे प्रभु का भोजन होय ||
इसी तरह बस चलते चलते, छः महीने भोजन बिन बीते |
नगर हस्तिनापुर में आये, राजा सोम श्रेयांस बताए ||
याद तभी पिछला भव आया, तुमको फौरन ही पड़धाया |
रस गन्ने का तुमने पाया, दुनिया को उपदेश सुनाया ||
तप कर केवल ज्ञान पाया, मोक्ष गए सब जग हर्षाया |
अतिशय युक्त तुम्हारा मन्दिर, चांदखेड़ी भंवरे के अन्दर ||
उसका यह अतिशय बतलाया, कष्ट क्लेश का होय सफाया |
मानतुंग पर दया दिखाई, जंजीरें सब काट गिराई ||
राजसभा में मान बढ़ाया, जैन धर्म जग में फैलाया |
मुझ पर भी महिमा दिखलाओ, कष्ट भक्त का दूर भगाओ ||
सोरठाः-
पाठ करे चालीस दिन, नित चालीस ही बार |
चांदखेड़ी में आय के, खेवे धूप अपार ||
जन्म दरिद्री होय जो, ; होय कुबेर समान |
नाम वंश जग में चले, जिनके नहीं सन्तान ||

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

            ।।स्वयंभू स्तोत्र।।

1. आदिम तीर्थंकर प्रभो!
आदिनाथ मुनिनाथ।
आधि-व्याधि अघ मद मिटे,
तुम पद में मम माथ।।
शरण चरण हैं आपके,
तारण तरन जिहाज।
भव दधि तट तक ले चलो,
करुणा कर जिनराज।।

2. जित इन्द्रिय जित मद बने,
जित भव विजित कषाय।
अजितनाथ को नित नमूं,
अर्जित दुरित पलाय।।
कोंपल पल-पल को पले,
वन में ऋतु पति आय।
पुलकित मम जीवन लता,
मन में जिन पद पाय।।

3. तुम पद पंकज से प्रभु,
झर-झर झरी पराग।
जब तक शिव सुख ना मिले,
पीऊँ षट्पद जाग।।
भव-भव भव-वन भ्रमित हो,
भ्रमता-भ्रमता आज।
संभव जिन भव शिव मिले,
पूरण हुआ मम काज।।

4. विषयों को विष लख तजूं,
बनकर विषयातीत।
विषय बना ऋषि ईश को,
गाऊं उनका गीत।।
गुण धारे पर मद नहीं,
मृदुतम हो नवनीत।
अभिनन्दन जिन ! नित नमूं,
मुनि बन में भवभीत।।

5. सुमतिनाथ प्रभु ! सुमति हो,
मम मति है अति मंद।
बोध कली खुल-खिल उठे,
महक उठे मकरंद।।
तुम जिन मेघ मयूर मैं,
गरजो-बरसो नाथ।
चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा,
ऊपर करके माथ।।

6. शुभ्र सरल तुम बाल तब,
कुटिल कृष्ण तब नाग।
तब चिति चित्रित ज्ञेय से,
किन्तु न उसमें दाग।।
विराग पद्मप्रभु आपके ,
दोनों पाद सरग।
रागी मम मन जा वहीं,
पीता तभी पराग।।

7. अबंध भाते काटके,
वसु विध विधि का बंध।
सुपार्श्व प्रभु निज प्रभुपना,
पा पाए आनंद।।
बांध-बांध विधि बंध मैं,
अंध बना मति मंद।
ऐसा बल दो अंध को,
बंधन तोडूं द्वंद्व।।

8. चन्द्र कलंकित किन्तु हो,
चन्द्रप्रभु अकलंक।
वह तो शंकित केतु से,
शंकर तुम निःशंक।।
रंक बना हूँ मम अत:,
मेटो मन का पंक।
जाप जपूँ जिननाम का,
बैठ सदा पर्यंक।।

9. सुविधि! सुविधि के पूर हो,
विधि से हो अति दूर।
मम मन से मत दूर हो,
विनती हो मंजूर।।
बाल मात्र भी ज्ञान ना,
मुझमें मैं मुनि बाल।
बवाल भव का मम मिटे,
प्रभु पद में मम भाल।।

10. शीतल चन्दन है नहीं,
शीतल हिम ना नीर।
शीतल जिन तब मत रहा,
शीतल हरता पीर।।
सुचिर काल से मैं रहा,
मोह नींद से सुप्त।
मुझे जगाकर कर कृपा,
प्रभो करो परितृप्त।।

11. अनेकांत की कांति से,
हटा तिमिर एकांत।
नितांत हर्षित कर दिया,
क्लांत विश्व को शांत।।
नि:श्रेयस् सुख धाम हो,
हे जिनवर! श्रेयांस।
तव थुति अविरल मैं करूँ,
जब लों घट में श्वाँस।।

12. वसु-विध मंगल-द्रव्य ले,
जिन पूजों सागार।
पाप घटे फलत: फले,
पावन पुण्य अपार।।
बिना द्रव्य शुचि भाव से,
जिन पूजों मुनि लोग।
बिन निज शुभ उपयोग के,
शुद्ध न हो उपयोग।।

13. कराल काला व्याल सम,
कुटिल चाल का काल।
मार दिया तुमने उसे,
फाड़ा उसका गाल।।
मोह अमल वश संबल बन,
निर्बल मैं भगवान।
विमलनाथ! तुम अमल हो,
संबल दो भगवान।।

14. अनंत गुण पा कर दिया,
अनंत भव का अंत।
‘अनंत’ सार्थक नाम तब,
अनंत जिन जयवंत।।
अनंत सुख पाने सदा,
भव से हो भयवंत।
अंतिम क्षण तक मैं तुम्हें,
स्मरुं स्मरें सब संत।।

15. दयाधर्म वर धर्म है,
अदया भाव अधर्म।
अधर्म तज प्रभु  ‘धर्म ने’,
समझाया पुनि धर्म।।
धर्मनाथ को नित नमूं,
सधे शीघ्र शिव शर्म।
धर्म-मर्म को लख सकूँ,
मिटे मलिन मम कर्म।।

16. शांतिनाथ हो शांत कर,
साता साता सांत।
केवल- केवल ज्योतिमय,
क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त।।
सकलज्ञान से सकल को,
जान रहे जगदीश।
विकल रहे जड़ देह से,
विमल नमूं नत-शीश।।

17. ध्यान अग्नि से नष्ट कर,
प्रथम पाप परिताप।
कुंथुनाथ पुरुषार्थ से,
बने न अपने आप।
ऐसी मुझपे हो कृपा,
मम मन मुझमे आय।
जिस विध पल में लवण है,
जल में घुल मिल जाय।।

18. नाम मात्र भी नहीं रखो,
नाम काम से काम।
ललाम आतम में करो,
विराम आठों याम।।
नाम धरो ‘अर’ नाम तव,
अत: स्मरूं अविराम।
अनाम बन शिव धाम में,
काम बनूँ कृत काम।।

19. मोह मल्ल को मारकर,
मल्लिनाथ जिनदेव।
अक्षय बनकर पा लिया,
अक्षय सुख स्वयमेव।।
बाल ब्रह्मचारी विभो,
बाल समान विराग।
किसी वस्तु से राग ना,
मम तव पद से राग।।

20. मुनि बन मुनिपन में निरत,
हो मुनि यति बिन स्वार्थ।
मुनिव्रत का उपदेश दे,
हमको किया कृतार्थ।।
यही भावना मम रही,
मुनिव्रत पाल यथार्थ।
मैं भी ‘मुनिसुव्रत’ बनूँ,
पावन पाय पदार्थ।।

21. अनेकांत का दास हो,
अनेकांत की सेव।
करूँ गहूँ मैं शीघ्र से,
अनेक गुण स्वयमेव।।
अनाथ मैं जगनाथ हो,
नमिनाथ दो साथ।
तव पद में दिन-रात हो,
हाथ जोड़ नत माथ।।

22. नील-गगन में अधर हो,
शोभित निज में लीन।
नील कमल आसीन हो,
नीलम से अति नील।।
शील-झील में तैरते,
नेमि जिनेश सलील।
शील डोर मुझ बांध दो,
डोर करो मत ढील।।

23. खास-दास की आस बस,
श्वास-श्वास पर वास।
पार्श्व! करो मत दास को,
उदासता का दास।।
ना तो सुर सुख चाहता,
शिव सुख की न चाह।
तव थुति सरवर में सदा,
होवे मम अवगाह।।

24. नीर-निधि से धीर हो,
वीर बने गंभीर।
पूर्ण तैरकर पा लिया,
भवसागर का तीर।।
अधीर हो मुझे धीर दो,
सहन करूँ सब पीर।
चीर-चीर कर चिर लखूँ,
अंतर की तस्वीर।।

शनिवार, 27 जनवरी 2018

        ।।श्री महावीर चालीसा 2।।

                    ।। दोहा।।
सिद्ध और अरिहंत का, है सुखकारी नाम।
आचार्य उपाध्याय साधु के, करते चरण प्रणाम।।
वर्धमान, सन्मति तथा वीर और अतिवीर।
महावीर की वंदना, से बदले तकदीर।।

                      ।। चौपाई।।

जय जय वर्धमान जिन स्वामी।
शान्ति मनोहर छवि है नामी।।
तीर्थंकर प्रकृति के धारी।
सर्व जहां में मंगलकारी।।

पुरुषोत्तम विमान से आये।
माँ को सोलह स्वप्न दिखाये।।
राजा सिद्धारथ कहलाय।
कुण्डलपुर के भूप कहाय।।

षष्ठी शुक्ल आषाढ़ कहाय।
गर्भ में चय करके प्रभु आये।।
चैत्र शुक्ल तेरस दिन आया।
जन्म प्रभु ने जिस दिन पाया।।

नक्षत्र उत्तरा फाल्गुन जानो।
अंतिम पहर रात का मानो।।
इन्द्र तभी ऐरावत लाया।
पाण्डुक शिला पर नव्हन कराया।।

प्रभु के पद में शीश झुकाया।
पग में चिह्न शेर का पाया।।
वर्धमान तब नाम बताया।
जयकारे से गगन गुंजाया।।

पलना प्रभु का मात झुलाये।
ऋद्धिधारी मुनिवर आये।।
मन में प्रश्न मुनि के आया।
जिसका समाधान न पाया।।

देख प्रभु को हल कर लीन्हा।
सन्मति नाम प्रभु का दीन्हा।।
मित्रो संग क्रीड़ा को आये।
सभी वीरता लख हरषायें।।

देव परीक्षा लेने आया।
नाग का उसने रूप बनाया।।
भागे मित्र सभी भय खाये।
किन्तु प्रभु नही घबराये।।

पेर की ठोकर सिर में मारी।
देव तभी चीखा अतिभारी।।
उसने चरणों ढोक लगाया।
वीर नाम प्रभु का बतलाया।।

युवावस्था प्रभुजी पाये।
करके सेर नगर में आये।।
हाथी ने उत्पात मचाये।
मद उसका प्रभु पूर्ण नशाय।।

प्रभु अतिवीर नाम को पाये।
सभी प्रशंसा कर हरषायें।।
बाल ब्रह्मचारी कहलाय।
तीस वर्ष में दीक्षा पाये।।

जातिस्मरण प्रभु को आया।
तभी मन में वैराग्य समाया।।
माघ कृष्ण दशमी दिन पाया।
नक्षत्र उत्तरा फाल्गुन गाया।।

तृतीया भक्त प्रभुजी पाये।
दीक्षा धर एकाकी आये।।
स्वर्ण रंग प्रभु का शुभ गाया।
सप्त हाथ अवगाहन पाया।।

प्रभु नाथ वन में फिर आये।
साल तरुतल ध्यान लगाये।।
कामदेव रति वन में आये।
जग को जीता ऐसा गाये।।

रति ने प्रभु का दर्शन पाया।
कामदेव से वचन सुनाया।।
इन्हें जीत पाये क्या स्वामी?
नग्न खड़े जो शिवपथगामी।।

प्रभु को ध्यान से खूब डिगाया।
किन्तु उन्हें डिगा न पाया।।
कामदेव पद शीश झुकाया।
महावीर तब नाम बताया।।

दश शुक्ल वैशाख बखानी।
हुए प्रभुजी केवलज्ञानी।।
ऋजुकूला का तीर बताया।
शाल वृक्ष वनखण्ड कहाया।।

समवशरण एक योजन जानो।
योग निवृत्ति अनुपम मानो।।
कार्तिक कृष्ण अमावस पाये।
महावीर जिन मोक्ष सिधाये।।

पावागिरी तीर्थ कहलाय।
चाँदनपुर में प्रभु प्रगटाये।।
यही भावना रही हमारी।
जनता सुखमय होवे सारी।।
चरणकमल में हम सिर नाते।
विशद भाव से शीश झुकाते।।

                   ।।दोहा।।

चालीसा चालीस दिन,दिन में चालीस बार।
पढ़ने से सुख-शांति हो, मिले मोक्ष का द्वार।।

            ●मुनि श्री 108 श्री विशदसागरजी कृत●

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

            ।।सम्मेद शिखर चालीसा।।
       
अरिहंत सिद्धाचार्य को, नमन करुँ शतबार,
सर्व साधु और सरस्वती को, देवे सौख्य अपार।
सम्मेदशिखर की भूमि का, हृदय में धरुं ध्यान,
दर्शन वंदन भक्ति कर, शत्शत् करुं प्रणाम।।

।।दोहा।।
जय जय सम्मेद शिखरवर तीर्थों में यह मुख्य गिरिवर।
इसका कण-कण भी पावन है होवे सौ सौ बार नमन है।।
भूले भटके कर्म के मारे, आये शरणा जीव ये सारे।
है अंचित्य महिमा गुणगान, शुद्ध भाव शाश्वत सुख खान।।
है इतिहास अनादि अनंत, आते ही मिल जाता पंथ।
न कोई मिटाने वाला, तोड़े कर्मों के जंजाला।।
भूत भविष्यत काल हो भावी, प्रलय काल न होवे हावी।
इन्द्र देवगण रक्षा करते, भक्त की आशा पूरी करते।।
दूर-दूर से यात्री आते दर्शन कर तन-मन हर्षाते।
टोंक टोंक पर दर्शन पावें, रोम-रोम पुलकित हो जावे।।
एक-एक टोंको का दर्शन, फल करोड़ उपवास का अर्जन।
होय असाध्य असम्भव काम, किया स्मरण लिया जो नाम।।
दर्शन कर संकट को खोवे, चमत्कार उसके संग होवे।
आगम शास्त्र पुराण भी ध्यावें, महिमा इसकी इन्द्र भी गावें।।
चौबीसों तीर्थंकर धाम, यही से पावे मोक्ष निधान।
जैन अजैन सभी जन आते, पर्वत ऊपर दर्शन को पाते।।
भाव सहित वंदन जो करते, नर तिर्यंच योनि न धरते।।
नयन बंद कर ध्यान लगाओं, श्री सम्मेद शिखर के दर्शन पाओं।
चौपड़ा कुंड में पाश्र्व का धाम, वंदन कर करते विश्राम।
दर्शन भव्य जीव ही करते, कर्म धार कर मुक्ति वरते।।
व्यसन बुराई दर्श से हटे, नाता न तेरे दर से टूटे।
मानव को शक्ति दे देता, संकट क्षण भर में हर लेता।।
हरे भरे वृक्षों की डाली, झूम रही होकर मतवाली।
करुं अर्ज मैं कर को जोड़, तू हैं चंदा मैं हूं चकोर।।
मधुबन मंदिर शिखर सुहाना, दर्शन प्रथम यहां का पाना।
गुरुवर सुमति सागर आये, त्यागी व्रती आश्रम को पाये।।
पीत वर्ण पारस की प्रतिमा, आकर निश्चित दर्शन करना।।
आत्म ज्योति है सिद्ध स्वरुप, सिद्धालय का बनना भूप।।
आत्म ज्ञान आकर प्रकटाना, शुद्ध ज्ञान की ज्योति जलाना।।
सिद्धों की नित करोगे जाप, होंगे दूर भवों के पाप।
पारस गुफा में ध्यान लगाओं, आत्म शांति को निश्चित पावो।
पाप छोड़ तुम पुण्य को भर दो, आशा मेरी पूरी कर दो।।
शब्द अर्थ भावों से वंदन, दर्श करुं हो जाऊं चंदन।
अज्ञानी है ज्ञानी कर दो, खाली जोली तुम भर दो।।
जग के दुःखों ने आ घेरा, छूटे जन्म मरण का फेरा।
बूढ़ा बच्चा और जवान करते हैं तेरा गुण गान।।
डोल रही भवसागर नैया, प्रभुवर तुम्हीं हो खिवैया।
जग में घूम-घूम कर हारे, अब वरदान मुझे दो सारे।।
चरणों में वंदन को आऊं, बार-बार दर्शन को पाऊं।
स्वस्ति चाहे शरण में रहना, और नहीं कुछ तुमसे कहना।।

चालीसा चालीस दिन, पाठ करे जो कोए,
सुख समृद्धि आवें तुरंत, दव दरिद्र सब खोए।
तीर्थंकर श्री बीस जिन, गये जहां निर्वाण,
उनकी पावन माटी को, शत्-शत् करुं प्रणाम।।
        ।। श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र अर्थ सहित।।

नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्रं अधीशं,
शतेन्द्रं सु पूजैं भजैं नाय-शीशं।
मुनीन्द्रं गणीन्द्रं नमो जोड़ि हाथं,
नमो देव-देवं सदा पार्श्‍वनाथं॥

भावार्थ - जिनके आगे चक्रवर्ती, धरणेन्द्र, सौधर्म इन्द्र आदि सभी मस्तक को झुकाकर अपने आपको धन्य मानते है, साथ ही मनुष्यों एवं मुनिगणों में श्रेष्ठ गणधर देव भी जिनकी भक्ति भाव से हाथ जोड़ कर वन्दना करते है।ऐसे देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

गजेन्द्रं मृगेन्द्रं गह्यो तू छुड़ावे,
महा-आगतैं नागतैं तू बचावे।
महावीरतैं युद्ध में तू जितावे,
महा-रोगतैं बंधतैं तू छुड़ावे॥

भावार्थ - जिनका नाम मात्र मदमस्त हाथियों सिंहों, जंगल की आग एवं भयानक नागों से बचाने में समर्थ है, जिनके नाम के सुमिरन से युद्ध में महावीरों से भी विजय और असाध्य रोग भी नष्ट हो जाते है। ऐसे चिंतामणि श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

दुःखी-दुःखहर्ता सुखी-सुखकर्ता,
सदा सेवकों को महानंद-भर्ता।
हरे यक्ष-राक्षस भूतं पिशाचं,
विषम डाकिनी विघ्न के भय अवाचं॥

भावार्थ - जिनके दर्शन करने से दुखियों के दुःख तो दूर होते ही है और साथ ही सुख सम्पन्न लोग भी चिंताओं को भुलाकर आनंद को पाते है, जिनका स्मरण करने मात्र से भूत-पिशाच आदि का भय क्षण मात्र में ही दूर हो जाता है।ऐसे विघ्न निवारक श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने,
अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने।
महासंकटों से निकारे विधाता,
सबे संपदा सर्व को देहि दाता॥

भावार्थ - जिनके स्मरण मात्र से ही दरिद्री भी चक्रवर्ती समान हो गए और जिनके पास कोई संतान नही थी, उन्होंने भी पुत्र को प्राप्त किया। जिनका नाम ही महासंकटों का निवारण करने में सक्षम है, और जिन्होंने विश्व की सभी सम्पदाओं का दान कर दिया है। ऐसे महादानी श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

महाचोर को वज्र को भय निवारे,
महापौन के पुंजतैं तू उबारे।
महाक्रोध की अग्नि को मेघधारा,
महालोभ शैलेश को वज्र भारा॥

भावार्थ - जिनका नाम चोरों के आतंक एवं वज्र आदि के भय से शीघ्र मुक्ति दिलाता है और संसार रूपी समुद्र से पार होने के लिए नौका और उनका शांत स्वरूप क्रोध रूपी दावागनल को शांत करने के लिए मेघों के समान है। जिनका नाम महलोभ रूपी पर्वत को नष्ट करने के लिए वज्र का कार्य करता है, ऐसे दयानिधान श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

महामोह अंधेर को ज्ञान-भानं,
महा-कर्म-कांतार को द्यौ प्रधानं।
किये नाग-नागिन अधोलोक स्वामी,
हरयों मान तू दैत्य को हो अकामी॥

भावार्थ - जिनका ज्ञान महा मोह रूपी अंधकार को विलुप्त करने में सूर्य के समान और कर्म रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए वीर के समान है, जिन्होंने करुणामय उपदेश देकर मरते हुए नाग-नागिन को अधोलोक का स्वामी बना दिया, साथ ही जिनके क्षमा भाव ने क्षण मात्र में ही कमठ देव के मान पर विजय को प्राप्त कर लिया। ऐसे सर्व शत्रु विजयी श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

तुही कल्पवृक्षं तुही कामधेनुं,
तुही दिव्य-चिंतामणी नाग एनं।
पशु-नर्क के दुःखतैं तू छुड़ावै,
महास्वर्ग में मुक्ति में तू बसावै।।

भावार्थ - हे प्रभु! आप ही दीनों के लिए कल्पवृक्ष, आप ही दुखियों के दुःख को दूर करने के लिए कामधेनु और लोक में व्यथित जनसमूह के लिए आप ही तो चिंतामणि रत्न के समान है। आपका नाम ही पशु नरक आदि दुःख देने वाली गतियों से छुड़ाने और स्वर्ग एवं मोक्ष को दिलाने वाला है।अतः दुखों से छुड़ाकर मोक्ष सुख के लिए श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

करे लोह को हेम-पाषाण नामी,
रटे ना सो क्यों न हो मोक्षगामी।
करै सेव ताकी करैं देव सेवा,
सुने बैन सोही लहे ज्ञान मेवा॥

भावार्थ - हे प्रभु! आपका नाम मात्र लोहे को पारस रत्न के समान कंचन कर देता है।आपके नाम का स्मरण करते रहने से मोक्ष मार्ग को प्राप्त करने का कठिन मार्ग भी सुलभ हो जाता है। कहते है आपके भक्तों की देवों द्वारा सेवा की जाती है। जिन भक्तों ने भी आपके सुवचनों को सुना है वे शीघ्र ही आपके समान केवलज्ञान के धारी हो गए, अतः मैं अपने अज्ञान का दमन करने के लिए श्री पार्श्वनाथ भगवान को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।

जपै जाप ताको नहीं पाप लागे,
धरे ध्यान ताके सबै दोष भागे।
बिना तोहि जाने धरे भव घनेरे,
तुम्हारी कृपातैं सरैं काम मेरे॥

भावार्थ - हे प्रभु! आपके नाम का स्मरण करते रहने से कोई भी पाप भक्त को छू तक नही सकता, आपका ध्यान करते रहने से सभी दोषों से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है। हे दीनानाथ! आपको पाये बिना ही मैं इस संसार में भटकता रहा हूँ। लेकिन अब आपकी शरण प्राप्त होने से मेरे सभी कार्य पूर्ण हो गए है अतः ऐसे शरणदाता श्री पार्श्वनाथ भगवान को मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।


(दोहा)

गणधर इन्द्र न कर सके,
तुम विनती भगवान।
द्यानत प्रीति निहार कै,
कीजे आप समान॥

भावार्थ - हे प्रभु ! आपके नाम की सम्पूर्ण स्तुति जब गणधर देव और इन्द्र तक नही कर सके तो मैं अर्थात द्यानतराय आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ। उनके समक्ष मैं तो अबोध बालक के समान हूँ अतः हे कृपालुदेव! आपसे बस इतनी ही विनती है कि मुझ सेवक शुभ भावना एवं प्रीति को देखकर मुझे भी अपने समान बना दीजिये।

श्री नेमिनाथ चालीसा


       ।। श्री नेमिनाथ चालीसा।।

नेमिनाथ महाराज का, चालीसा सुखकार।
मोक्ष प्राप्ति के लिए, कहूँ सुनो चितधार।।
चालीसा चालीस दिन, तक कहो चालीस बार।
बढ़े जगत सम्पत्ति सुमत, अनुपम शुद्ध विचार।।

।।चौपाई।।

जय-जय नेमिनाथ हितकारी,
नील वर्ण पूरण ब्रह्मचारी।
तुम हो बाईसवें तीर्थंकर,
शंख चिह्न सतधर्म दिवाकर।।

स्वर्ग समान द्वारिका नगरी,
शोभित हर्षित उत्तम सगरी।
नही कही चिंता आकुलता,
सुखी खुशी निशदिन सब जनता।।

समय-समय पर होती वस्तु,
सभी मगन मन मानुष जन्तु।
उच्योत्तम जिन भवन अनन्ता,
छाई जिन में वीतरागता।।

पूजा-पाठ करे सब आवें,
आतम शुद्ध भावना भावें।
करे गुणीजन शास्त्र सभाएँ,
श्रावक धर्म धार हरषायें।।

रहे परस्पर प्रेम भलाई,
साथ ही चाल शीलता आई।
समुद्रविजय की थी रजधानी,
नारी शिवादेवी पटरानी।।

छठ कार्तिक शुक्ला की आई,
सोलह स्वप्ने दिये दिखाई।
कहें राव सुन सपने सवेरे,
आये तीर्थंकर उर तेरे।।

सेवा में जो रही देवियां,
टहल करे माँ की दिन रतियाँ।
सुर दल आकर महिमा गाते,
तीनों वक्त रत्न बरसाते।।

मात शिवा के आँगन भरते,
साढ़े दस करोड़ नित गिरते।
पन्द्रह माह तक हुई लुटाई,
ले जा भर-भर लोग लुगाई।।

नौ माह बाद जन्म जब लीना,
बजे गगन खूब अनहद वीणा।
सुर चारों कायो के आये,
नाटक गायन नृत्य दिखाये।।

इंद्राणी माता ढिंग आई,
सिर पर पधराये जिनराई।
लेकर इंद्र चले हाथी पर,
पधराया पाण्डु शिला पर।।

भर-भर कलश सुरों ने दीने,
न्हवन नेमिनाथ के कीने।
इतना वहाँ सुरासुर आया,
गंधोदक का निशान पाया।।

रत्नजड़ित सम वस्त्राभूषण,
पहनाएँ इन्द्राणी जिन तन।
नगर द्वारका मात-पिता को,
आकर सौपें नेमिनाथ को।।

नाटक तांडव नृत्य दिखाएँ,
नौ भव प्रभुजी के दर्शाएँ।
बचपन गया जवानी आई,
जैनाचार्य दया मन भाई।।

कृष्ण भ्रात से बहुबलदायक,
बने नेमि गुण विद्या ज्ञायक।
श्रीकृष्ण थे जो नारायण,
तीन खण्ड का करते शासन।।

गिरिवर को जो कृष्ण उठाते,
इसकी वजह बहुत गर्माते।
नेमि भी झट उसे पकड़कर,
बहुत कृष्ण से ठाड़े ऊपर।।

बैठे नेमि नाग शय्या पर,
हर्षित शांत हुए सब विषधर।
वहाँ बैठे जब शंख बजाया,
दशों दिशा जग जन कम्पाया।।

चर्चा चली सभा के अन्दर,
यादववंशी कौन है वीरवर।
उठे नेमि यह बातें सुनकर,
उँगली में जंजीर डालकर।।

खेंचे इसे ये नेमि तेरा,
सीधा हाथ करे जो मेरा।
हम सबमें वो वीर कहावें,
पदवी राज बली की पावें।।

झुका न कोई हाथ सका था,
कृष्ण और बलराम थका था।
तबसे कृष्ण रहे चिन्तातुर,
मुझसे अधिक नेमि ताकतवर।।

कभी न राज्य लेले यह मेरा,
इसका करूँ प्रबन्ध अवेरा।
करवा नेमि शादी को राज़ी,
कोई रचूं दुर्घटना ताज़ी।।

दयावान यह नेमि कहाते,
सब जीवों पर करुणा लाते।
कैसा अब षड्यंत्र रचाऊँ,
नेमिनाथ को त्याग दिलाऊँ।।

उग्रसेन नृप जूनागढ़ के,
राजुल एक सुता थी जिनके।
चन्द्रमुखी, गुणवती, सुशीला,
सुन्दर कोमल बदन गठीला।।

उससे करी नेमि की मगनी,
परम योग्य यह साजन-सजनी।
जूनागढ़ नृप खुशी मनाई,
भेज द्वारका गयी सगाई।।

हीरे-मोती लाल जवाहर,
नानाविध पकवान मनोहर।
रत्नजड़ित सब वस्त्राभूषण,
भेजे सकल पदारथ मोहन।।

शुभ महूर्त में हुई सगाई,
भये प्रफुल्लित यादवराई।
की जो नारी नगर की धारी,
किये सुखी सब दुखी भिखारी।।

दिए किसी को रथ गज घोड़े,
दिए किसी को कंगन थोड़े।
दिए किसी को सुन्दर जोड़े,
दिन जब रहे विवाह के थोड़े।।

कीनी चलने की तैयारी,
आये सम्बन्धी न्यौतारी।
छप्पन करोड़ कुटुम्बी सारे,
और बाराती लाखों न्यारे।।

चले करमचारी सेवकगण,
छवि चढत की क्या हो वर्णन।
जब जूनागढ़ की हद आयी,
कृष्ण नगर में पहुँचे जायी।।

खेपाड़े में पशु भी आये,
भूख प्यास भय से चिल्लाये।
नेमि की बारात चढ़ी जब,
द्वारे पर आकर अटकी तब।।

चिल्लाहट पशुओं की सुनकर,
छाई दया दयालु दिल पर।
बोले बन्द किये क्यों इनको,
कभी न परदुख भाता मुझको।।

तुम बारातियों की दावत में,
देने को बांधे भोजन में।
सुन यह बात नेमि कम्पाये,
वस्त्राभूषण दूर हटाये।।

शादी अब में नही करूँगा,
जग को तज निज ध्यान धरूँगा।
जा पशुओं के बंधन खोलें,
पिता समुद्रविजय तब बोले।।

छोड़ो पशु अब धीरज धारो,
चलो ससुर के द्वार पधारो।
जगत पिताजी सब मतलब का,
मन सुख में कुछ ध्यान न पर का।।

खुद तो नित्यानन्द उठावें,
पर की जान भले ही जावें।
चाहत हमें दुखी करने का,
जब निज भाव सुखी रहने का।।

जैनवंश नरभव यह पाकर,
जन्म-जन्म पछताऊँ खोकर।
दो दिन की यह राजदुलारी,
तज कर वरु अचल शिवनारी।।

सभी तौर समझाकर हारे,
पर नेमि गिरनार सिधारे।
चाहे कहो भ्रात को धोखा,
चाहो कहो निमित्त अनोखा।।

चाहे कहो पशु कुल की रक्षा,
चाहे कहो यही थी इच्छा।
पिच्छी बगल कमण्डल लेकर,
जाते चार हाथ मग लखकर।।

महलों खड़ी देख यह राजुल,
गिरी मूर्च्छित होकर व्याकुल।
जब सखियों ने होश दिलाया,
माता ने यह वचन सुनाया।।

रंग-ढंग क्यों बिगड़े है तेरे,
फेर  न उनके कोई फेरे।
पुत्री न चिन्ता व्यर्थ करो तुम,
खेलो, खाओ, जियो, हँसो तुम।।

करो दान सामायिक पूजा,
शादी करूँ देख वर दूजा।
सुनो मात यह बात हमारी,
मुनिराज एक समय उचारी।।

नौ भव के प्रेमी वह तेरे,
अब जग नाम तुम्हारा ठेरे।
सुरनगरी, शिवनगरी जाऊँ,
आप तिरु संसार तिराऊं।।

पूज्य गुरु के अटल वचन है,
तप वैराग्य भावना मन है।
माता-पिता सहेली सखियों,
मुझे भूल सब धीरज धरियों।।

नारी धरम नही यह छोडूं,
विषय भोग जग से मुख मोडूँ।
भूषण वसन निःशंक उतारकर,
धोती शुद्ध सफेद धारकर।।

पथिक बनी मैं भी उस पथ की,
प्रीति निभाऊँगी दस भव की।
आगे-पीछे दोनों जाते,
सुर नर पुष्प रत्न बरसाते।।

जूनागढ़ वासी हर्षाते,
महिमा त्याग रूप की गाते।
गई आर्यिका बनकर गिरी पर,
नेमि पास चढ़ सकी न ऊपर।।

तेरे दर्शन कारण प्रीति,
निजानन्द अनुभव रस पीती।
ध्यान आरूढ़ गुफा में रहती,
निर्भय नित्य नियम तप करती।।

कभी दूर नेमि के दर्शन,
कर गाती हर्षित गुणगायन।
कीने हितवन केवलज्ञानी,
समवशरण में फैली वाणी।।

समवशरण जिस नगरी जाता,
कोस चार सौ तक सुख आता।
चालीस हाथ आप अरिहर थे,
सेवा में ग्यारह गणधर थे।।

उम्र तीन सौ में ले दीक्षा,
वर्ष सात सौ थी जिन शिक्षा।
लाखों दुखिया पार लगाएं,
आयु सहस वर्ष शिव पाए।।

राजुल जीव राज सुर पाया,
तभी पूज्य गिरनार सहाया।
धर्म लाभ जो श्रावक पाए,
सुमत लगत मन हम भी जाएं।।

।।दोहा।।

नित चालिसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन।
खेये सुगन्ध सुसार, नेमिनाथ के सामने।।
होवें चित्त प्रसन्न, भय, चिंता शंका मिटे।
पाप होय सब अन्त, बल-विद्या-वैभव बढ़े।।

।।अहिच्छत्र पार्श्वनाथ चालीसा।।
 सुर,नर, किन्नर, मुनिवर गणधर जिनका निशदिन गुण गाते है। जिनके सुमिरण से भक्तों को मनवांछित फल मिल जाते है।।1।।

 मैं भक्ति भावना से प्रेरित पारस प्रभु के गुण गाता हूँ। पारस प्रभु के दर्शन पाकर में धन्य धन्य हो जाता हूँ।।2।।

मैं पूज्यपाद अरहंत सिद्ध श्रीआचार्यों को ध्याता हूँ। में उपाध्याय सब संतों को नत होकर शीश झुकाता हूँ।।3।।

तुम हो तिखाल वाले बाबा तुमको मन में पध्राता हूँ। दर्शन का शुभ अवसर पाकर गद-गद होकर हर्षाता हूँ।।4।।

 ये रामनगर का बड़ा किला है पांचालो की राजधानी है। हे पारस! तुमसे हार यही उस कमठाचर ने मानी है।।5।।

अहिच्छत्र भूमि की यशगाथा पारस पुराण बतलाता है। इसके महात्मय को पढ़कर मन आश्चर्यचकित रह जाता है।।6।।

 इस भू पर ही पारस तुमने शुभ केवलज्ञान उपाया है। जिसके कारण इस नगरी ने अहिच्छत्र परमपद पाया है।।7।।

धरणेन्द्र और पद्मावती ने फण मंडप यहाँ रचाया है। इस अतिशय के द्वारा ही यह अतिशय तीरथ कहलाया है।।8।।

 यह वामा के तेइसवे सुत तीर्थंकर की यशगाथा है। पार्श्व कमल पर मोहित मन मधुकर बनकर मंडराता है।।9।।

श्री अश्वसेन राजा के तुम हे पारस! राजदुलारे हो। गुणवंती वामा माता के आँखों के उज्जवल तारें हो।।10।।

घनघोर परेशानी सहकर तुमने अहिच्छत्र बनाया है। शठ कमठाचर को तुमने ही तप द्वारा यहाँ हराया है।।11।।

श्री पात्रकेशरी स्वामी ने जैनत्व यही पर पाया है। श्रद्धान पाँच सौ शिष्यों को जिनमत पर यही कराया है।।12।।

वेदी तिखाल बाबा की जो देती अब तक दिखलाई है। सुनते है देवों इन्द्रों ने यह रातों रात बनाई है।।13।।
तुम पर ही निर्जन वन में बरसे ओलें शोलें पत्थर पानी। पर कठिन तपस्या के आगे चल सकी न शठ की मनमानी।।14।।

उस कमठाचर ने बैर भाव बैरी बन दस भव तक ठाना। फिर करनी में असफल होकर अपनी मूरखता पहचाना।।15।।

जिसने बैरी से बैर किया नरकों की अपनाई। रमते-रमते,भ्रमते-भ्रमते प्रभु आज तुम्हे पहचाना है।।16।।

परिवार परिग्रह वैभव में मिलती न ज़रा सुख साता है। धनवान वही है इस जग में जो उनकी शरण आता है।।17।।

अपने उद्धार हेतु जिनवर में शरण आपकी आया हूँ। मैं आत्मशांति से भरने को बस खाली झोली लाया हूँ।।18।।

भक्तों को ऐसे चमत्कार उपकार भरा मिल जाता है। जिसके द्वारा विपदाओं से प्राणी छुटकारा पाता है।।19।।

तुम गुणनिधान महिमा महान दैदीप्यमान उजियारा हो। उसके संकट मिट जाते है जिसने भी तुम्हे पुकारा हो।।20।।

मेरी जिह्वा से निशिवासर पारस गुणगान तुम्हारा हो। मेरे अंतरमन में स्वामी सुखदायक ध्यान तुम्हारा हो।।21।।

यह मेरे नैन निरंतर ही पारस प्रभु के दर्शन पाएँ। अपने इन दुर्लभ नैनों को हम सार्थक करके दिखलाएँ।।22।।

जिसको सुनकर तर जाते है भवसागर में भटके प्राणी। कान हमारे धन्य बने है सुनकर तीर्थंकर की वाणी।।23।।

जिनराज तुम्हारे दर्शन की जागी मन में अभिलाषा हो। मेरे उर के सिंहासन पर भगवान तुम्हारा वासा हो।24।।

मेरे ये दोनों हाथ प्रभु पूजन की सामिग्री लाए। प्रभु के चरणों में भाव सहित सर्वस्व चढाकर हर्षाए।।25।।

मेरे ये दोनों पाँव सदा अहिच्छत्र नमन को आयेंगे। पारस प्रभु के दर्शन पाकर दुर्लभ सुख साता पायेंगे।।26।।

आते है जो शरण तुम्हारी खाली हाथ वो नही जाते है। अपनी-अपनी आशाओं का सब मनवांछित फल पाते है।।27।।

सन् सत्तावन में जो माली जिन्मूर्ति यहाँ ले आया था। जो कुआँ क्षेत्र पे है उसने मूरत को वहाँ छिपाया था।।28।।

उस दिन से यह कुआँ अब तक कितना महान उपकारी है। इसका पवित्र जल पीनें से मिटती असाध्य बीमारी है।।29।।

 वसुपाल भूप मंदिर रचकर उसमे पॉलिश करवाता था। पर वह पॉलिश तत्काल स्वयं पीछे से गिरता आता था।।30।।

मुनि द्वारा अब भेद खुला यह कारीगर है माँसाहारी। उसने भी मासँ न खाने की आजन्म प्रतिज्ञा सुखकारी।।31।।

 तत्काल विघ्न निष्फल होकर पारस का जय-जयकार हुआँ। अतिशय यह चमत्कारों द्वारा अहिच्छत्र सुखों का द्वार हुआँ।।32।।

इस अतिशय तीर्थ क्षेत्र में जो पारस से ध्यान लगाते है। चिंताओं से विपदाओं से वह छुटकारा पा जाते है।।33।।

भौतिक पारस मणि तो केवल लोहे को स्वर्ण बनाती है। पारस के चरणों को छू कर आत्मा कुंदन बन जाती है।।34।।

अरहंत आपके चरणों में अपने अंतरपट खोलेंगे। नित भक्ति भाव से प्रेरित होकर पारस प्रभु की जय बोलेंगे।।35।।

इस पार्श्वनाथ चालिसे का जो मन से पाठ रचाएँगे। इस जग की सकल संपदाएँ अपने चरणों में पाएँगे।।36।।

 ।।इति श्री अहिच्छत्र पार्श्वनाथ चालीसा।।

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